पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचना कृति ‘अकथ कहानी प्रेम की’ कबीर पर ऐसी पहली पुस्तक है जिसमें कबीर पर हिंदी और अंग्रेजी में चले आ रहे आधुनिक विमर्श के भीतर रहते हुए कुछ ऐसे पक्षों पर ध्यान देने की चेष्टा की गई है जो निश्चित रूप से अब तक आधुनिक विमर्शों में पूरी तरह से उपेक्षित रहा है।
यह कृति ‘अकथ कहानी प्रेम की’ भारत की पहली आधुनिकता (मध्यकाल) को औपनिवेशिकता के दबाव से मुक्त करने का एक अनुष्ठान है। ऐसी आधुनिकता को गढ़ने में देशी भाषाओं, लोकजीवन तथा व्यवहार की केंद्रीय भूमिका का इसमें विशद विवेचन किया गया है। प्रभात त्रिपाठी के शब्दों में “अपनी देसी ऐतिहासिक चेतना को देश-भाषा स्रोतों और पश्चिम के अधिक निष्पक्ष विद्वानों के विचारों से जोड़ते हुए पुरुषोत्तम अग्रवाल ने रेखांकित किया है कि देसी भाषाओं से कतई अपरिचित लोगों के द्वारा भारत के संबंध में कोई प्रामाणिक बात करने की कोशिश करना सिवा हिमाकत के कुछ नहीं है।”
पुरुषोत्तम अग्रवाल ने कबीर की कविता पर अलग से विचार किया है, पर पूरी किताब पढ़ते हुए यही लगता है कि जैसे वे कविता की गिरफ्त में ही सब लिख रहे हैं। वहीं तीस्ता सीतलवाड़ और जावेद आनंद के अनुसार- “डॉ अग्रवाल की आलोचना कृति यह समझा सकती है कि आधुनिकता भारत में अंग्रेजों के साथ नहीं उनके आने के बहुत पहले आ चुकी थी। कबीर जैसे संत कोई अजूबे नहीं, बल्कि इस आधुनिकता के परिणाम भी थे, और इसके कारक भी।”
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वे विदेशी विद्वान या कुछ ऐसे भारतीय विद्वान जिन्हें भारतीय इतिहास बर्फ में जमा सा लगता है, ‘अकथ कहानी प्रेम’ की ऐसे कुछ लोगों की गढ़ी हुई कहानी का प्रतिवाद करती है। अपनी आलोचना कृति में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इस पक्ष को प्रमुखता से उठाया है कि भारतीय समाज के सांस्कृतिक अनुभव और स्मृतिकोश को जानना आज बहुत जरूरी हो गया है और साथ में उनकी भी बातें सुनना और जानना जरूरी है जो ना संस्कृत बोलते हैं ना फारसी और नहीं अंग्रेजी। आलोचना के इन मंतव्यों को उनके इस लंबे उद्धरण में समझा जा सकता है- “अतीत को जानने की इच्छा बनाए रखना केवल ‘अतीत रस’ को आस्वादन करने के लिए जरूरी नहीं है। गैर यूरोपीय समाज में, यह इच्छा केवल अस्मिताओं के संघर्ष तक भी सीमित नहीं रहनी चाहिए। एक सिरे से उपनिवेशित होने के लिए, गुलाम बनने के लिए जो उतावले हैं, गर्दन उचका-उचकाकर देख रहे हैं कि गौरवर्ण स्वामियों के शुभ चरण फिर से, कब खुलेआम गैर यूरोप को रौंदना शुरू करते हैं, उनकी बात और है। लेकिन जो उपनिवेशवाद और औपनिवेशिक ज्ञान कांड के इतिहास और इतिहास लेखन में उसके ‘योगदान’ को सचमुच जान लेंगे, वे नव उपनिवेशवाद की संभावनाओं और खतरों की उपेक्षा नहीं कर पाएंगे। वे ‘ओरिएंटलिज़्म’ का विरोध करने के लिए उसका प्रतिबिंब ‘आक्सिडेंटलिज़्म’ गढ़ने के प्रलोभन से दूर रहेंगे विद्वानों के बीच ‘देसी विदेशी’ का पाँतभेद करने की जरूरत नहीं समझेंगे और नस्लवाद/जातिवाद का विरोध करने के नाम पर उलट नस्लवाद/ जातिवाद अपना लेने से भी बचेंगे।”
आलोचक यहाँ इस बात को रेखांकित करते हैं कि उपनिवेशवाद की विशिष्ट ऐतिहासिक स्थिति ने भारत और अन्य औपनिवेशिक समाजों के बौद्धिक मानस में औपनिवेशिक समाजों के बौद्धिक मानस में औपनिवेशिक सत्ता और ज्ञान कांड के प्रति एक तरह के अंतर्द्वंद और उलझन का रवैया पैदा किया है और यह भी कि वे औपनिवेशिक ज्ञानकांड के उपजे ज्ञान से टकराते जरूर थे लेकिन उसी ज्ञान कांड की शर्तों पर। उसी के द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर रहते हुए। कबीर के वंश निर्धारण और कबीर रामानंद के संबंध के बहस में यह स्थिति साफ दिखती है। पुरुषोत्तम अग्रवाल की कृति ‘अकथ कहानी प्रेम की’ पुस्तक की शुरुआत ही औपनिवेशिक ज्ञान कांड के कारण जन्में दो रूखों की चर्चा से होती है पहले के अनुसार-
“हमारी हर समस्या विदेशियों की देन है। दूसरे शब्दों में, अपनी हर समस्याएं हल तो हम क्या करेंगे, इतनी भी सामर्थ परमात्मा ने भारतीयों को नहीं दी है कि अपने लिए कुछ समस्याएं स्वयं भी पैदा कर सकें।”
दूसरे के अनुसार- “अंग्रेजी राज के पहले के भारतीय जन-जीवन में, सिवाय अत्याचारों और तर्क विहीन परंपराओं के अंधानुगम के और था क्या आधुनिकता।”
बेशक यह बात ध्यान रखने योग्य है कि किसी भी ज्ञानकांड की तरह औपनिवेशिक ज्ञानकांड में भी अनेक स्वर थे और ये सभी स्वर उपनिवेशीकृत समाजों की परंपराओं और जीवन विधियों, वास्तविकताओं और स्मृतियों के प्रति एक से असंवेदनशील नहीं थे। पुरुषोत्तम अग्रवाल का विचार है- “जिस तरह हासिए के लोग रचे गए, उसी तरह औपनिवेशिक आधुनिकता द्वारा ‘जड़, इतिहासविहीन’ मध्यकाल भारतीय इतिहास के उस कालखंड पर आरोपित किया गया, जो आर्थिक-सांस्कृतिक दोनों दृष्टियों से ठेठ आधुनिक गतिशीलता और वाद-विवाद-संवाद के जरिए परंपरा जनित आधुनिकता के विकास का काल था।”
निश्चित रूप से कबीर और उनके समय को समझने के पहले पुरुषोत्तम अग्रवाल औपनिवेशिक आधुनिकता द्वारा कबीर की खोज के निहितार्थ को समझना जरूरी समझते हैं। डॉ. अग्रवाल यहाँ यह रेखांकित करना नहीं भूलते हैं कि आधुनिक ज्ञानकाण्ड उपनिवेशकृत समाज के अपने स्मृतिकोश और स्मरणविधियों से सवार करके कभी भी इतिहास नहीं लिखता था उसे जो चाहिए था वह उपनिवेशकृत समाज के अतीत और वर्तमान में खोज लेता था और यह भी कि संस्कृत, फारसी या अंग्रेजी की मानसिकता से मुक्त होकर यदि कबीर की आवाज को सुनें तो लगता है कि कबीर को उनके समाज और परंपरा ने न स्थल स्वर माना है न ही हाशिए की आवाज ।
पुरुषोत्तम अग्रवाल का इस संदर्भ में यह विचार विचारणीय है कि- “कबीर के समय का भारत उद्धार के लिए यूरोपीय आधुनिकता के अवतार की प्रतीक्षा करता भारत नहीं, स्वयं अपनी परंपरा से पनप रही आधुनिकता की ओर बढ़ता भारत था। कबीर और तुकाराम आधुनिक इसलिए नहीं लगते कि वे अपने समय से आगे निकल कर आधुनिक को हो गए हैं, बल्कि इसलिए लगते हैं क्योंकि जिस समय में ये कवि रचना कर रहे हैं, वह समय भारतीय इतिहास में आधुनिकता के उदय का समय है”। इस संदर्भ में यह बात पूरी तरह से उभर कर आती है कि अतीत का बेहतर बोध बेहतर भविष्य की गारंटी तो नहीं दे सकता लेकिन उसकी ओर बढ़ने में मदद जरूर करता है। कबीर को ही नहीं, पूरे भारतीय अनुभव को समझने और उसे आत्मसात करने के लिए ‘पेंडुलम धर्म’ से मुक्ति आवश्यक है। अर्थात पुरुषोत्तम अग्रवाल इस बात पर बल देते हैं कि कबीर के ऐतिहासिक परिवेश के बारे में सहज सत्य मान लिए गए कुछ असत्यों से मुक्ति आवश्यक है। इसके लिए पुरुषोत्तम अग्रवाल देश भाषा के स्रोतों की तलाश को रेखांकित करते हैं। अर्थात दैनंदिन व्यवहार के साक्ष्य देनेवाले देश-भाषा स्रोतों की बात सुनें तो मालूम पड़ता है की भारतीय समाज पर ब्राह्मणों की निरंतर वर्चस्व की तस्वीर वास्तविक जीवन के अध्ययन पर नहीं बल्कि निराधार फार्मूलों पर आधारित है।
इसी बात को रेखांकित करते हुए हिंदी क्षेत्र के बारे में इस तथ्य से संबंधित पुरुषोत्तम अग्रवाल का यह विचार ध्यान देने योग्य है कि- “शाश्वत ब्राम्हण-वर्चस्व की तस्वीर औपनिवेशिक सत्ता के साथ ब्रांहणों के ‘कोलैबोरेशन’ के फलस्वरुप अठारहवीं- उन्नीसवीं सदी में गढ़कर कबीर के समय पर चिपका दी गई है। इसीलिए जिन्हें निकोलस डर्कस ‘ऑफिशियल ब्रांहण’ कहते हैं उपनिवेशवाद के साथ उनकी जुगलबंदी के नतीजों को समझे बिना ब्राम्हणवाद को न तो समझा जा सकता है, न उसका उचित उपचार किया जा सकता है।”
इन्हीं बातों के संदर्भ में पुरुषोतम अग्रवाल तुलसी के कलिकाल वर्णन को रेखांकित करते हैं क्योंकि तुलसी के समय में व्यापार के कारण जो नई जातियां बन रही थीं, उससे वर्ण व्यवस्था को चुनौती भी मिल रही थी। पुरुषोत्तम अग्रवाल का विश्लेषण है-“तुलसीदास का कलियुग संबंधी विलाप अभूतपूर्व नहीं है। भारतीय इतिहास में जब-जब सामाजिक गतिशीलता दिखती है, तब-तब कलियुग-विलाप भी दिखता है-‘विष्णु पुराण’ से लेकर ‘रामचरितमानस’ तक। यह विलाप दैनंदिन जीवन की परिवर्तनशीलता को बताने वाला और ब्राहमणो के अबाध, निरंतर वर्चस्व के मिथकों को तोड़ने वाला साक्ष्य है।” इन संदर्भों में पुरुषोतम अग्रवाल के लिए तुलसी द्वारा कलियुग पर कोप करना समाज की गतिशीलता को ही रेखांकित करना है। पुरुषोत्तम अग्रवाल के दृष्टिकोण से अगर बात किया जाए तो “यही रेखांकन इस तथ्य में भी है कि ब्रामहन-वर्चस्व और संस्कृत-केंद्रिकता को चुनौती देते रामानंद ‘जात-पाँत पूछे नहीं कोई’ की घोषणा देशभाषा में कर रहे हैं। यह घोषणा हिंदू-परंपरा में, वर्ण व्यवस्था विरोधी सामाजिकता और धार्मिकता के प्रस्ताव की घोषणा हैं। आत्मालोचन रुपांतरण का न्योता है- देशभाषा में किया जा रहा है- यह प्रस्ताव, और दैनंदिन व्यवहार में रुपांतरण हो भी कहा है।”
इस प्रकार के अनेक उदाहरण द्वारा पुरुषोत्तम अग्रवाल यह स्थापित करते हैं कि भारतीय समाज में कोई इतिहासविहीन समाज नहीं था। वह भी समकालीन साहित्य की तरह इतिहास के रास्ते पर चलता हुआ समाज था और यूरोप तथा भारत में यह समानता खूब विद्यमान थी। लेकिन इसी संदर्भ में पुरुषोत्तम अग्रवाल को कुछ फर्क दिखाई भी दे जाता है उन्हीं के शब्दों में- “फ़र्क यह था कि यूरोपीय साम्राज्यवाद के कारण भारत और अन्य गैर-यूरोपीय समाजों में ‘देशज आधुनिकता’ अवरुद्ध हो गई। औपनिवेशिक स्थिति के फलस्वरुप आई आधुनिकता ने परंपरा के प्रवाह में आनेवाले आवेग के स्थान पर परंपरा से तीक्ष्ण टूटन का रूप ले लिया। परंपरा और आधुनिकता के बीच संवेदना-विच्छेद उत्पन्न हो गया। इन समाजों की अनेक समस्याओं के मूल में यह संवेदना विच्छेह ही है। कबीर के प्रसंग में इसी संवेदना-विच्छेद के कारण निराधार बातों को ‘ऐतिहासिक सच्चाईयों’ का दर्जा दे दिया गया है। कबीर को हाशिए की आवाज़ मानना ऐसी ही निराधार बात है।”
अतः पुरुषोत्तम अग्रवाल का इस संदर्भ में तर्क यही है कि ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा करते हुए उपनिवेशवाद के ‘ऑफिशियल-ब्राह्मणों’ की करतूतों को पारंपरिक सोच माना जाता रहा है। जो आज भी जारी है और यही एक बात औपनिवेशिक सत्ता और उसकी सहयोगियों की सफलता का प्रमाण है। अतः पुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचना के माध्यम से यह बात पूरी तरह से उभरकर सामने आती है कि देशज भाषाओं को भोले-भाले गंवारों की भाषाएँ मानना छोड़ कर उनका विवेचन किया जाए जिससे कबीर ही नहीं पूरे भक्ति काल के लोकवृत्त को परखा जा सकता है।
‘मध्यकाल’ साहित्य या चिंतन में केवल अनुवाद और अनुगमन करने लायक है, यह मानकर और यूरोप में रचे जा रहे ज्ञान का अनुगमन करना छोड़ना होगा।तभी हम भक्ति की संवेदना का सार्थक जीवंत बहस कर सकते हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार- “कबीर के ही नहीं, अन्य प्रसंगों में भी, बहुत से सहज स्वीकार्य मान लिए गए प्रस्थान और निष्कर्ष ऐसे ही अनुगमन के परिणाम हैं। नाना प्रकार के वैचारिक गोत्रों से सम्बद्ध ज्ञानीजन-मुनिगण सारे परस्पर मतभेदों के बावजूद कबीर के समय के बारे में ऐसी अनेक बातों को निर्विवादित स्वयंसिद्ध मान लेते हैं, जिनकी ‘खोज’ ही नहीं, ‘रचना’ भी औपनिवेशिक सत्ता की आवश्यकताओं के मुताबिक की गई है। जो सामाजिक संस्थाएँ, परंपराएँ और आदतें औपनिवेशिक काल में विकसित हुई, या भारत के किसी एक क्षेत्र तक सीमित थीं , उन्हें औपनिवेशिक ज्ञानकांड और थ्योरी ने भारतीय समाज की ‘शाश्वत और अखिल भारतीय विशेषताएँ’ ‘सिद्ध’ कर दिया।” अपनी आलोचना में पुरुषोत्तम अग्रवाल ने सबसे ज्यादा औपनिवेशिक आधुनिकता द्वारा उत्पन्न समस्याओं पर जोर दिया है और मनुष्य संवेदन एवं प्रेम जैसी चीजों को सामने रखा है, वे औपनिवेशिक आधुनिकता के करतूतों को उजागर करते हैं। आधुनिकता का सबसे बड़ा लक्षण है मनुष्य, समाज और ब्रह्मांड के संबंधों को पुनर्परिभाषित करने का प्रयत्न करती चेतना।
कुल मिलाकर पुरुषोत्तम अग्रवाल अपनी विवेचना में राष्ट्रवाद का विखंडन और डिकंस्ट्रक्शन करने वाले को यह ध्यान दिलाना चाहते हैं कि उन्हें औपनिवेशिक ज्ञानकांड का विखंडन इसी प्राथमिकता के साथ करना चाहिए। जबकि उनकी प्राथमिकता में यह बातें नहीं आतीं। अतः मुख्य बात यह है कि देश भाषा के श्रोतों में अंतर्निहित चेतना को गंभीरता से लिए बिना सारी-की-सारी परंपरा को साज़िश मानने से अलग होकर भारतीय या किसी भी परंपरा के आत्मानुसंधान को समझना असंभव है और फिर भी कि उपनिवेशवाद की दूरगामी निष्पत्तियों को समझे बिना ब्राह्मणवाद का खंडन नहीं किया जा सकता।
डॉ.वर्षा कुमारी