हजारी प्रसाद द्विवेदी एक ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में ही जाने जाते हैं। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ उपन्यास हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित पहला ऐतिहासिक उपन्यास है। इस उपन्यास का प्रकाशन 1946 में हुआ था। यह उपन्यास हर्षकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का जीता जागता दस्तावेज है। यह उपन्यास इतिहास और कल्पना का बहुत ही सुंदर समन्वय है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह दोनों एक दूसरे के पूरक हो। इस उपन्यास का संबंध संस्कृत के प्रसिद्ध कवि बाणभट्ट से है। इस उपन्यास में सातवीं शताब्दी के हर्ष युग के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्थिति के ऐतिहासिक तत्वों पर प्रकाश डाला गया है। इस उपन्यास में प्रमुख तीन पात्र हैं- बाणभट्ट, भट्टिनी तथा निपुणिका, राज्यश्री, कुमार वर्धन, सुचरिता। यह सभी पात्र कथानक के विकास में अहम भूमिका निभाते हुए जान पड़ते हैं। इसके साथ ही इसमें काल्पनिक पात्र भी हैं।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने प्राचीन कवि बाणभट्ट के जीवन को बहुत ही कलात्मकता से गूँथ कर एक ऐसी कथाभूमि निर्मित की है जो जीवन सत्यों से रसमय साक्षात्कार कराती है। द्विवेदी जी ने इस उपन्यास की रचना मध्यकालीन इतिहास के एक छोटे से कालखंड को आधार बनाकर की है। इस उपन्यास में सातवीं शताब्दी का इतिहास और समाज का जीवंत चित्रण प्रस्तुत हुआ है। इस उपन्यास की केंद्रीय समस्या बाणकालीन राजवंशीय इतिहास को प्रस्तुत करने की नहीं है, बल्कि मुख्य समस्या है भट्टिनी(प्रभावशाली चरित्र)की रक्षा करना। जो भट्टिनी नारी की गरिमा, उदारता, समस्त भारतीयता और अपने समाज की आस्था का प्रतीक है। नारी सम्मान की रक्षा का भाव इस उपन्यास का मूल केंद्र है। “हजारी प्रसाद द्विवेदी में कारयित्री प्रतिभा के कारण ही उच्च कोटि के भावयित्री प्रतिभा भी है।” यहां द्विवेदी जी के संबंध में डॉ.हरदयाल का यह कथन बिल्कुल उचित जान पड़ता है। ” ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ ऐतिहासिक उपन्यास के दायित्व को निबाहने में पूर्णता समर्थ है।”
द्विवेदी जी जिस समय यह उपन्यास लिख रहे थे उस समय उपनिवेशवाद से भारत को हर तरह से मुक्त करने की कोशिश की जा रही थी। द्विवेदी जी द्वारा उपन्यास के भारतीय रूप की तलाश उपनिवेशवाद से मुक्ति की एक कोशिश ही है। “उपन्यास के नाम से ही ज्ञात है कि वह बाणभट्ट की आत्मकथा है पर वास्तव में बाणभट्ट की कथा नहीं है, उसके समय की आत्मकथा है। बाणभट्ट आत्मरति प्रधान पात्रों की तरह अपने में डूबकर केवल अपने समय के तथ्यों की या अपनी आंतरिक दुनिया की कहानी नहीं कहता है। वह तो अपने समय की और उसके माध्यम से शोषक समाज से संघर्ष करते अभिशप्त लोगों की कहानी कहता है।”
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की ऐतिहासिकता के बारे में लिखा है कि “इतिहास की दृष्टि से छोटी-मोटी असंगतियां चाहे निकल आए पर अधिकांश में उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री से कथा की सामग्री का विरोध नहीं है।” इस उपन्यास में पात्रों के माध्यम से भी ऐतिहासिकता को जाना और समझा जा सकता है, जैसे- कृष्णवर्धन, ग्रह वर्मा, राज्यश्री, महाराजा हर्षवर्धन, धावक जैसे कुछ ऐसे पात्र हैं जिन्हें इतिहास के क्षेत्र में जाना जाता है। इस उपन्यास का नायक भी एक ऐतिहासिक व्यक्ति है। इस उपन्यास में सभी स्थान ऐतिहासिक है पर घटनाएं काल्पनिक ही हैं। “उपन्यास को लिखने के लिए लेखक को स्वयं बाणभट्ट बनना पड़ा है। इसमें लेखक को बेजोड़ सफलता मिली है।”
द्विवेदी जी ने अपने उपन्यास के बारे में लिखा है कि “दो साल तक यह कथा यों ही पड़ी रही। एक दिन मैंने सोचा कि बाणभट्ट के ग्रंथों से मिलाकर देखा जाए कि कथा कितनी प्रमाणित है। कथा में ऐसी बहुत सी बातें थी जो उन पुस्तकों में नहीं है। इनके लिए मैंने समसामयिक पुस्तकों का आश्रय लिया और एक तरह से कथा को नए सिरे से संपादित किया।” यहां द्विवेदी जी ने इतिहास से प्राप्त हर्षकालीन स्थूल आंकड़ों को आधार न बना कर तत्कालीन साहित्य में चित्रित सत्यों को आधार बनाया है। इन्हीं सामग्री को मिलाकर द्विवेदी जी ने एक सुंदर कहानी प्रस्तुत की है। इसी विषय में बच्चन सिंह का कहना है कि “पूर्व कालीन उत्तरभारत का इससे ज्यादा प्रामाणिक इतिहास दूसरा नहीं है।”
यह उपन्यास आत्मकथात्मक शैली में लिखा हुआ ऐतिहासिक रोमांच है। इसमें नारी को वर्ण विषय बनाया गया है। तत्कालीन आर्यावर्त की प्रभुतावादी सामंती व्यवस्था में नारी की स्थिति भोग्या से अधिक और कुछ भी नहीं थी। उसे एक वस्तु के रूप में ही देखा जाता था। निपुणिका पर समाज के अनैतिक संबंधों का आरोप लगा और भट्टिनी देवी होकर भी अंत:पुर में आबद्ध है। वहीं सुचरिता गृहस्थ जीवन का त्याग कर वैराग्य धारण करना चाहती है।
उद्देश्य:
इस ऐतिहासिक उपन्यास को लिखने का उद्देश्य द्विवेदी जी का सिर्फ बाणभट्ट के जीवन का विवरण देना नहीं था बल्कि बाणकालीन भारत, गुप्त काल, कलात्मक और धार्मिक इतिहास से लोगों को रूबरू कराना भी था। द्वितीय उच्छवास में महावराह की मूर्ति का परिचय देने के बहाने द्विवेदी जी ने मध्यकालीन मूर्तिकला का विवेचन किया है। तो सातवें उच्छवास में चित्रकला, नृत्यकला, शिल्पकला, स्थापत्य कला का वर्णन हुआ है। आठवें उच्छवास में काव्य-विमर्श को देखा जा सकता है। इतिहास की दृष्टि से सामंतों, राजाओं के अंतःपुरों का वर्णन भी है। आगे मध्यकालीन धर्म-साधना पर भी इस उपन्यास में प्रकाश डाला गया है। ब्राम्हण और बौद्ध धर्म का विवेचन भी हुआ है तथा वैष्णव,तांत्रिक, यथास्थान शैव, वाम मार्ग आदि जन समूहों की साधना पद्धतियों और उनके मध्य संघर्षों का परिचय भी हमें बखूबी देखने को मिलता है।
अतः निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा को ऐतिहासिक उपन्यास की परंपरा में खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पात्र की दृष्टि से हो या स्थान की दृष्टि से या शिल्प या भाषा शैली की दृष्टि से हो इन सभी के माध्यम से द्विवेदी जी ने अपनी विलक्षण प्रतिभा की पहचान दी है। द्विवेदी जी अपने इस उपन्यास के माध्यम से यह भी संदेश देना चाहते हैं कि नारी की गरिमा को समझो, नारी के प्रति सम्मान भाव रखो, नारी को मात्र भोग की वस्तु न समझो, उसके प्रति पवित्र एवं उदार भाव रखो।
डॉ.वर्षा गुप्ता