हिंदी साहित्य में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, किन्नर विमर्श के साथ-साथ प्रवासी विमर्श के मुद्दे भी उठाना आज बहुत ही आवश्यक हो गया है।
‘प्रवास’ शब्द ‘वास’ धातु में ‘प्र’ उपसर्ग लगाने से बना है। ‘वास’ का प्रयोग निवास करने के अर्थ में किया जाता है और ‘प्र’ उपसर्ग लगाने से इसका अर्थ बदल जाता है। इस प्रकार से ‘प्रवास’ का अर्थ है विदेश गमन, विदेश में बसना तथा अपने देश अथवा घर से बाहर रहना। डॉ. सुधा ओम ढींगरा के शब्दों में विदेश में लिखे जा रहे साहित्य को प्रवासी साहित्य कहा जाता है। हर देश के साहित्य की भिन्नता परिवेश, जीवन मूल्य, मानसिकता और सामाजिक सरोकारों से होता है।
प्रवासी साहित्य का मतलब प्रवासी लोगों द्वारा लिखा गया साहित्य है।
प्रवास शब्द का अर्थ है, विदेश गमन या विदेश यात्रा। जिसका अर्थ है किसी दूसरे देश में रहने वाला व्यक्ति प्रवासी है। प्रवासी ऐसे लोगों का एक बड़ा समूह है जिनकी विरासत या मातृभूमि एक समान है और जो विश्व के अन्य स्थलों में स्थानांतरित हो गए हैं।
प्रवासी साहित्य का उद्भव और विकास भारतीय प्रवासी नाम से हुआ है। जिसका हिंदी रूपांतरण है इंडियन डायस्पोरा जिसका अर्थ है। वह बिखरी हुई आबादी जो विशेषकर अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में जा बसी है।
मृदुला गर्ग प्रवासी साहित्य के बारे में कहती हैं कि प्रवासी साहित्य को अलग करके देखने की बजाय उसे हिंदी की मुख्यधारा में स्थान दिया जाए।
डॉ. रामदरश मिश्र ने कहा है कि “प्रवासी साहित्य ने हिंदी को नई जमीन दी है और हमारे साहित्य का दायरा दलित विमर्श और स्त्री विमर्श की तरह विस्तृत किया है।”1
डॉ.शैलजा के मतानुसार “भारत के बाहर लिखे जाने वाले साहित्य को भारतीय आलोचकों ने ‘प्रवासी साहित्य’ का नाम दिया है। पर ‘प्रवासी साहित्य’ शब्द भारत से बाहर रचे जा रहे सारे साहित्य को पूरी तरह से व्याख्यायित नहीं करता। हर देश की जीवन शैली, राजनैतिक स्थितियां, सामाजिक संदर्भ अलग-अलग होते हैं, अतः वहां का साहित्य भी अलग ही होता है। यदि हम विदेशों में रचे जा रहे हिंदी साहित्य की सही विवेचना करना चाहते हैं तो हमें इस साहित्य को देशों के आधार पर ही देखना चाहिए जैसे, ‘कनाडा का हिंदी साहित्य’, ‘अमेरीका का हिंदी साहित्य’, ‘इंग्लैंड का हिंदी साहित्य’ आदि। इसे यदि हम एक शीर्षक के अंतर्गत रखना चाहते हैं तो इसे ‘भारतीय हिंदी साहित्य’ कहना अधिक उचित होगा।
डॉ. कमल किशोर गोयनका के अनुसार “हिंदी के प्रवासी साहित्य का रूप-रंग उसकी चेतना और संवेदना भारत के हिंदी पाठकों के लिए नई वस्तु है, एक नए भाव बोध का साहित्य है, एक नई व्याकुलता और बेचैनी का साहित्य है जो हिंदी साहित्य को अपनी मौलिकता एवं नए साहित्य संसार से समृद्ध करना है। इस प्रवासी साहित्य की बुनियाद भारत तथा स्वदेश परदेश की द्वंद पर टिकी है तथा बार-बार हिंदू जीवन मूल्यों तथा सांस्कृतिक उपलब्धियों तथा उनके प्रति श्रेष्ठता के भाव की अभिव्यक्ति होती है।”2
अमेरिका में रहने वाले प्रवासी हिंदी रचनाकार देवी नागरानी प्रवासी हिंदी साहित्य के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखती हैं कि “हिंदी का जो साहित्य है विश्व में हिंदी की अंतरराष्ट्रीयता को बुलंदी के साथ स्थापित कर रहा है इस बात में कोई शंका नहीं। चाहे वह मॉरीशस का हिंदी साहित्य हो या अमेरिका का सूरीनाम हो या इंग्लैंड का। हिंदी साहित्य की हर धारा उसी में मिलकर एक राष्ट्रीय भाषा हिंदी की सरिता बनकर बहेगी तभी वह सैलाब अंतर्राष्ट्रीय धरातल पर अपना स्थान पा सकेगा। प्रवासी हिंदी साहित्य हिंदी के अंतरराष्ट्रीयकरण का सबसे सशक्त मार्ग है।”3
डॉ. कृष्ण कुमार ने विदेशी प्रवासी साहित्य की निम्नलिखित विशेषताएं बताई है-
1. स्थानीय परिवेश एवं वातावरण का उल्लेख
2. स्थानीय सामाजिक मूल्यों एवं रिश्तो के समीकरणों की प्रस्तुति।
3. देश-विदेश के जीवन-मानव मूल्यों का चित्रण।
4. देश-विदेश परिवेश जनित भिन्नताओं का चित्रण।
5. परिवार, परिजन, प्रियजन देश विछोह की पीड़ा का चित्रण।
6. स्थानीय संस्कृति संस्कारों की झलक।
हिंदी को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने में प्रवासी हिंदी साहित्यकारों के योगदान को हम नकार नहीं सकते बल्कि उनके द्वारा लिखे गए साहित्य में हमें एक अलग प्रकार की संवेदना प्रकट होती है। क्योंकि उनका मन तो भारतीय होता है पर प्रवास में निवास करने की वजह से उन्हें अलग-अलग चीजों को ग्रहण करना पड़ता है। प्रवासी हिंदी साहित्यकारों की रचनाओं में एक बेचैनी और अखुलाहट को बखूबी महसूस किया जा सकता है। फिर भी ऐसी परिस्थितियों में भी वे कालजई रचनाओं का सृजन करते हुए देखे जा रहे हैं।
भारत के लोग विश्व के विभिन्न देशों में निवास कर रहे हैं और वही रहते हुए वे लोग हिंदी को, हिंदी साहित्य को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य बखूबी निभा रहे हैं। ऐसा ही एक नाम है उषाराजे सक्सेना का। जिन्होंने इंग्लैंड को अपना साहित्यिक कर्मभूमि बनाया है। इनके साहित्य में भारत और भारतीय संस्कृति एवं भाषा के प्रति अधिक बल दिखाई देता है। वहीं प्रवासी हिंदी साहित्य को आगे बढ़ाने में तथा उन्हें विकसित करने में मॉरीशस की भूमिका बहुत भी महत्वपूर्ण रही है क्योंकि वहां के लोग अपने सांस्कृतिक विरासत के रूप में हिंदी भाषा एवं साहित्य को स्थापित करने के साथ-साथ विकसित भी किया है। वहां पर हिंदी साहित्य में लेखन कार्य को बखूबी देखा जा सकता है।
अतः देखा जा सकता है कि प्रवासी हिंदी साहित्य न केवल पूरी दुनिया में अपना स्थान बनाया है बल्कि अपनी पहचान भी बना चुका है। प्रवासी साहित्य एक स्थापित साहित्य है। जिसे दरकिनार नहीं किया जा सकता है। आज हिंदी पूरे विश्व की भाषा बनती जा रही है। प्रवासी साहित्यकारों की वजह से आज हिंदी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान भी बना रही है।
डॉ.वर्षा गुप्ता