पूरे भारत को एकजुट होकर रहने के लिए किसी एक भाषा का होना अनिवार्य है। अनादि काल से ही भारत की संस्कृति समाज एकमुखी होने के कारण वह विभिन्न भाषा-भाषी एवं धर्मावलंबी जन-समुदाय को एक सूत्र में बांधकर रखने में सफलता हासिल की है। ऐसी विशिष्ट और वैविध्यपूर्ण भारतीय आत्मा के विराट स्वरूप के दर्शन के लिए साहित्य को एक श्रेष्ठ एवं सशक्त माध्यम के रूप में माना जाता है। प्राचीन काल में संस्कृत ही चलती फिरती भाषा होती थी। संस्कृत भाषा को ही श्रेष्ठ भाषा के रूप में स्वीकार किया गया था। आधुनिक काल की अगर हम बात करें तो अंग्रेजी की ओर लोगों का ज्यादा झुकाव देखा जा सकता है। लेकिन अंग्रेजी भाषा भारतीय साहित्य एवं संस्कृति की आत्मा को सफल अभिव्यक्ति देने में पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पा रही है। यह विलायती भाषा बोलने में ही ठीक-ठाक है। इस भाषा में अपनापन नहीं झलकता है। इसका अनुभव बहुत से लोगों ने महशुस किया है, चाहे वह साहित्यकार हो, चाहे दूरदर्शन प्रेमी, राष्ट्रप्रेमी हो मीडिया हो, कोई भी हो सभी ने महशुस किया कि अपने देश को चलाने के लिए, उसे आगे बढ़ाने के लिए, देश में भाईचारा रखने के लिए किसी एक भाषा का होना अत्यंत आवश्यक है और वह भाषा ऐसी हो जिसे पूरा देश समझ सके, अपने विचारों का आदान-प्रदान आसानी से कर सके। इसी मुद्दे पर विचार विमर्श करते हुए सभी ने यही तय किया कि हिंदी राजभाषा संपर्क भाषा के रूप में ठीक है। अगर हम यहां हिंदी के साहित्यकारों पर बात करें तो भावात्मक एकता और राष्ट्रीय विचारधारा से प्रेरित होकर कई अहिंदी भाषियों ने हिंदी का अध्ययन ही नहीं अपितु वे हिंदी में अपनी रचनाएं भी लिखने लगे। फलस्वरुप देखा जाए तो हिंदी में दो प्रकार के लेखक उभर कर सामने आते हैं एक तो वह जो हिंदी भाषा के हैं और दूसरे वो जो अहिंदी भाषी हैं। अगर हिंदी साहित्य के पन्नों को पलट कर देखें तो हमें दोनों प्रकार के लेखक देखने को मिलेंगे। आज भी हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि में हिंदी भाषी लेखक तथा अहिंदी भाषी लेखक दोनों ही अपना योगदान दे रहे हैं। चाहे वह अपना अनुवाद कर रहे हो या तुलनात्मक अध्यन कर रहे हो। कहीं-न-कहीं हिंदी साहित्य से जुड़े ही रहे हैं। हिंदी भाषी लेखक की अपेक्षा अहिंदी भाषी लेखक को हिंदी में रचना करने के लिए संघर्ष का सामना करना पड़ता है। उन्हें समझने और समझाने में थोड़ी दिक्कत हो सकती है क्योंकि वे हिंदी के नैसर्गिक वातावरण से वंचित रहते हैं। इसीलिए उन्हें ज्यादा चिंतन और मनन करने की आवश्यकता होती है। उन्हें उस वातावरण में पढ़ना पड़ता है। लेकिन अगर गौर किया जाए तो अहिंदी भाषी लेखकों को हिंदी साहित्य के इतिहास में उतना स्थान नहीं मिल रहा है जितना की हिंदी लेखकों को मिलता है। अगर हम साहित्य के पन्नों को उकेर कर देखेंगे तो हिंदी भाषी लेखक नाममात्र के ही दिखेंगे। जबकि उनकी रचना भी हिंदी में उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितनी हिंदी भाषी लेखकों की रचनाएं होती हैं। सदियों से अहिंदी भाषी हिंदी की प्रगति एवं प्रतिष्ठा में अपना अमूल्य योगदान देते आ रहे हैं। हिंदी के महत्व को लेकर समाज सुधारक, कई महान नेताओं ने अपने-अपने मत दिए हैं। उनके प्रभाव और प्रेरणा से कई लोग हिंदी में अपना-अपना योगदान दे रहे हैं।
इसी के फलस्वरूप मद्रास में “दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा” की स्थापना हुई। जिसकी शाखा दक्षिणी भाग के चारों राज्यों में फैली हुई है। यह एक प्रमुख हिंदी सेवी संस्था है जो दक्षिणी राज्यों आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक में भारत के स्वतंत्र होने के काफी पहले से हिंदी के प्रचार-प्रसार का कार्य कर रही है। इसके संस्थापक ‘महात्मा गांधी’ तथा ‘एनी बेसेंट’ थी। इसका मुख्य ध्येय था ‘एक राष्ट्रभाषा हिंदी हो एक हृदय हो भारत जननी’ इस प्रकार दक्षिण भारत के चारों राज्यों ने हिंदी की उन्नति और विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते चले आ रहे हैं। ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा’ और अन्य बहुत से प्रचार संस्थाओं की ओर से हिंदी के पठन-पाठन में और हिंदी को बढ़ावा देने का जो दुर्लभ प्रयास हुआ है या हो रहा है उसका अपना एक अलग महत्व है।
1960 के बाद दक्षिण भारत के विश्वविद्यालयों में एक क्रांति की लहर दौडी थी। 1960 के बाद भारत के विश्वविद्यालयों में हिंदी में एक नया अध्ययन और अनुसंधान शुरू हुआ। 1960 तक के विश्वविद्यालयों में स्नातक स्तर की शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी न ही हिंदी में कोई अनुसंधान होता था। लेकिन धीरे-धीरे समय बदलता गया और आज भारत के अधिकांश विश्वविद्यालयों में शोध कार्य होता है। बल्कि दक्षिण भारतीय छात्र ही नहीं देश के कोने-कोने से छात्र यहाँ से शोध करके जाते हैं और हिंदी में उपाधियां प्राप्त कर नौकरी पाते हैं ।
हम देख सकते हैं कि हिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी में जो शोध कार्य हुआ, जो अनुसंधान हुआ उसका न केवल साहित्यिक महत्व है, बल्कि राष्ट्रीय और सांस्कृतिक महत्व भी है।
डॉ.वर्षा गुप्ता