जगदीश चंद्र द्वारा प्रकाशित उपन्यास ‘धरती धन न अपना’ 1972 में प्रकाशित हुई थी। इस उपन्यास में जगदीश चंद्र ने पंजाब के दोआबा क्षेत्र के दलित जीवन की त्रासदी को चित्रित क्या है। मुख्य गांव से बहिष्कृत बस्ती चमादडी में बसने वाली चमार जाति की असहनीय पीड़ा को लेखक ने यथार्थ की भूमि पर प्रस्तुत किया है। पर ऐसा नहीं है कि सिर्फ पंजाब में ही दलितों की स्थिति ऐसी है बल्कि ऐसी स्थिति हमें संपूर्ण भारत में दिखाई देती है। इस उपन्यास की कहानी दो पात्रों काली और ज्ञानो के इर्द गिर्द घूमती हुई दिखाई पड़ती है। यह दोनों पात्र दलित वर्ग से ही है। उपन्यास की कहानी एक अंचल विशेष की कहानी है जिसे पढ़ते हुए हमें ऐसा प्रतीत होता है कि गांव हमारी आंखों के सामने है और हम एक-एक घटना को देख और महसूस कर रहे हैं।
जगदीश चंद्र के शब्दों में –
“मेरा यह उपन्यास मेरी किशोरावस्था की कुछ अविस्मरणीय स्मृतियों और उनके दामन में छिपी एक अदम्य वेदना की उपज है।”
काली और उसका पूरा दलित वर्ग दलित होने का द्वंश झेलता है। उच्च वर्गों के द्वारा दलितों का शोषण किया जाता है कभी मारा तो कभी असहनीय दर्द और पीड़ा झेलने पर मजबूर किया जाता है। उनकी स्त्रियों के साथ शोषण किया जाता है। पर उन स्त्रियों को बोलने का भी हक नहीं होता कि वह अपनी रक्षा के खातिर आवाज उठा सके। उन्हें मंदिरों में प्रवेश से भी वंचित रखा जाता है। इतना ही नहीं उन्हें कुएं से पानी लेने का भी अधिकार नहीं होता है। उन्हें समाज से अलग और अछूत समझा जाता है। गावों में दलित जाति के लिए गांव से थोड़ा हटकर एक मोहल्ला होता है।
जगदीश चंद्र ने अपने इस उपन्यास में ज्ञानो और काली के माध्यम से दलित जाति में प्रेम संबंध को भी दिखाने का प्रयास किया है। इस उपन्यास को अंत तक पढ़ने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि दलित जाति के लिए प्रेम करना भी एक बड़े अपराध से कम नहीं है। ऐसा लगता है कि दलित जाति में प्रेम का अंत ही मौत होता है। काली और ज्ञानो का प्रेम संघर्ष और उनकी दुखद परिणति इस उपन्यास के अंत में दिखाई पड़ता है। ज्ञानो को उसकी मां के हाथों जहर देकर मार देना उसके बाद काली का कुछ पता न चलना।
ऐसी-ऐसी अनगिनत घटनाएं हमें इस उपन्यास में दिखाई पड़ती है जिसे पढ़ने पर हमारा कलेजा कांप उठता है की हमारे समाज में ऐसे भी लोग रहते हैं जो मानव होकर भी मानव पर ही अत्याचार करते हैं।
डॉ.वर्षा गुप्ता