स्त्री सशक्तिकरण की सूत्रधार ‘पंडिता रमाबाई’:Stri Sashaktikaran Ki Sutradhar ‘Pandita Ramabai’
“भाइयों, मुझे क्षमा कीजिए। मेरी आवाज़ आप तक नहीं पहुंच रही है
लेकिन इसपर मुझे आश्चर्य नहीं है। क्या आपने शताब्दियों तक कभी
किसी महिला की आवाज़ सुनने की कोशिश की? क्या आपने उसे
इतनी शक्ति प्रदान की कि वह अपनी आवाज़ आप तक पहुंचा सके?”
यह संदेश रमाबाई ने 1889 ई. में मुंबई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पांचवे अधिवेशन में दे कर नारी मुक्ति आंदोलन की नींव रखी थी।
देश में 19वीं शताब्दी का दौर बेहद चिंताजनक था। यह दौर नारी मुक्ति का दौर था। उस समय भारत गुलामी का जीवन जी रहा था और स्त्री समाज की दशा अत्यंत दयनीय थी।
पंडिता रमाबाई उन महिलाओं में से हैं जो स्त्री सशक्तिकरण के लिए लड़ाई लड़ी थी। वह भी उस समय जब देश में नवजागरण की मात्र शुरुआत ही हो रही थी। 19वीं शताब्दी का युग ऐसा ही युग था जब रमाबाई ने अपने धर्म से हटकर निचली जाति में विवाह कर पूरे जातिवाद पर एक प्रश्न खड़ा कर दिया था। अपनी शादी के 2 वर्ष बाद विधवा होने के बाद भी उन्होंने विधवा जीवन नहीं जीया। उन्होंने हमेशा अपना सर ऊंचा रखा। उनकी यही इच्छा थी कि वह महिलाओं के लिए शक्ति और प्रेरणा का स्रोत बने। विदुशी महिला होने के बावजूद भी रमाबाई ने पूरे समाज को आईना दिखाने का काम किया। रमाबाई ने रूढ़ीवादी परंपराओं को तोड़ा और महिलाओं को शिक्षित बनाने का काम किया।
रमाबाई का जन्म और जीवन
रमाबाई का जन्म 23 अप्रैल 1858 को मैसूर रियासत के गंगमूल के जंगलों में एक ब्राम्हण परिवार में हुआ था। इनके बचपन का नाम रमा डोंगरे था। वह समय जब इनका जन्म हुआ था तब ब्राह्मणवादी समाज में महिलाओं को संस्कृत पढ़ाने की इजाजत नहीं देता था लेकिन इनके पिता अनंत शास्त्री पत्नी तथा अपने बच्चों को संस्कृत की शिक्षा दी। इसका परिणाम भी अनंत शास्त्री को भुगतना पड़ा था। उन्हें गाँव से बहिष्कार होना पड़ा था। पंडिता रमाबाई को वेद और संस्कृत का बहुत ही अच्छा ज्ञान था। 20वर्ष की उम्र में रमाबाई को सैकड़ों श्लोक रटे हुए थे। 1877 में ऐसा समय आया जब इनका पूरा परिवार भयंकर अकाल की वजह से खत्म हो गया। सिर्फ रमाबाई और भाई श्रीनिवास किशोरवय ही जीवित बचे थे। इसके बाद रमाबाई अपने भाई के साथ पूरे देश में घूमती और पुराण की कथाएं सुना कर अपना जीवन यापन करती थी।
रमाबाई में सीखने की ललक थी। यही वजह रहा कि इन्होंने कई भाषाओं का अध्ययन किया और उस पर अपनी पकड़ मजबूत की। 20 साल की उम्र में ही रमाबाई संस्कृत की पंडित बन गई। 1878 ईस्वी में अपने बड़े भाई के साथ कोलकाता में रहने लगी। कोलकाता में ब्राह्मण समाज के लोग रमाबाई के संस्कृत के ज्ञान से बहुत प्रभावित हुए। यही वजह रहा कि रमाबाई को भाषण देने के लिए कई जगहों पर बुलाया जाने लगा। रमाबाई ने देश दुनिया समाज को करीब से देखा, जाना और पहचाना था। यह भाव उनके भाषणों में बखूबी झलकती थी। धीरे-धीरे रमाबाई की विद्वता दूर-दूर तक फैलने लगी थी।
1878 ईस्वी में कोलकाता विश्वविद्यालय द्वारा उन्हें पंडिता और सरस्वती जैसी उपाधियों से विभूषित किया गया।
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अपनों का साथ छूटा और समाज का साथ पकड़ा
रमाबाई ने बंगाल में बाल विवाह तथा विधवाओं की दयनीय स्थिति पर विचार करना शुरू कर दिया था। इसी बीच इनके बड़े भाई का साया भी इनके सर से उठ गया। रमाबाई बिल्कुल अकेली हो गई। इसी अकेलेपन की वजह से रमाबाई ने शादी करने का विचार बनाया और 1880 ईस्वी में बंगाल के ही एक कायस्थ वकील विपिन बिहारी से शादी रचा ली। इस शादी की वजह से इन्हें जातिवाद संबंधी विरोध भी सहन करना पड़ा।
आर्य महिला समाज की स्थापना
अभी वैवाहिक जीवन की शुरुआत हो ही रही थी कि हैजा की वजह से उनके पति भी स्वर्ग लोक पधार गए। पति की मौत ने रमाबाई को अंदर से झकझोर कर रख दिया। फिर भी ऐसे समय मैं रमाबाई ने अपने आप पर संयम रखा और वह पुणे शहर में रहने के लिए चली गई। धीरे-धीरे रमाबाई का ईसाई धर्म में विश्वास गहराता जा रहा था। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने ईसाई धर्म को ही अपना लिया।
पुणे में ‘आर्य महिला समाज’ की स्थापना की और स्त्री शिक्षा पर काम करने लगीं। इस कार्य में रमाबाई को पूरा-पूरा सहयोग मिला। धीरे-धीरे इस महिला समाज की शाखाएं पूरे महाराष्ट्र में खुल गई। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में ज्यादा शिक्षिकाओं के रहने की मांग रखी और चिकित्सा के क्षेत्र में भी महिलाओं की भागीदारी की बात रखी। उनका कहना था कि महिलाओं की ऐसी बहुत सी परेशानियां होती हैं जिनके लिए महिला डॉक्टर का होना जरूरी है।
जैसा कि हम देख सकते हैं कि रमाबाई देश-विदेश में भ्रमण करती रही थी। उसी दौरान उन्होंने ‘द हाई कास्ट हिंदू वूमेन’ एक किताब लिखी।
इस किताब में महाराष्ट्र में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता पर प्रकाश डाला गया था। इस किताब में रमाबाई ने हिंदू महिलाओं की समस्याओं को उभारने की कोशिश की है। विधवा विवाह, बाल विवाह और हिंदू महिलाओं के साथ घटने वाली घटनाएं, उन पर होने वाले अत्याचारों को इस किताब में रमाबाई ने बखूबी उल्लेख किया है। रमाबाई का मुक्ति मिशन आज भी सक्रिय है।
रमाबाई ने बचपन से ही ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को झेला, इसीलिए उन्होंने अपने जीवन में आगे कई वर्षों तक इस से जूझती रहीं।
जीवन में प्राप्त सम्मान और पुरस्कार
1919 ईस्वी में समुदाय सेवा के लिए इन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा कैसर-ए-हिंद पदक से सम्मानित किया।
भारतीय महिलाओं के उत्थान में काम करने के लिए 1989 ईस्वी में भारत सरकार ने रमाबाई पर एक स्मारक टिकट भी जारी किया।
मुंबई में रमाबाई के नाम से सड़क का निर्माण भी किया गया है।
रमाबाई का निधन सेप्टिक ब्रोंकाइटिस की वजह से 5 अप्रैल, 1922 को हो गया था।
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डॉ.वर्षा कुमारी