माँ जी, “बहू…ओ बहू! जल्दी चाय लाओ। कितनी देर हो गई।” श्रुति को शादी करके आए हुए अभी दो दिन ही हुए थे कि, घर के काम-काज में लग गई थी। करन, “क्या हुआ श्रुति आज तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा है?” श्रुति सहमी हुई “नहीं-नहीं, वो आज समीर की बहुत याद आ रही है। हम दोनों बचपन से एक साथ लड़ते-झगड़ते बड़े हुए हैं। मानों वह मेरा छोटा भाई ना होकर माँ-बाप हो। मेरी खुशी का सबसे ज्यादा उसे ही ख्याल रहता है। अभी ऐसा लगा जैसे दीदी-दीदी मुझे पुकारता हुआ आ रहा हो। शादी के बाद लड़कियों की जिंदगी कितनी बदल जाती है न। अब वो दिन नहीं आएंगे शायद।” बोलते बोलते श्रुति की आँखें नम हो गई।
करन, “अरे श्रुति! बदलाव तो प्रकृति का नियम है। तभी तो हम नए-नए चीजे सीखते हैं। जब तक जीवन है, नए रिश्ते जुडते ही रहेंगे। हमें संतुलन बना कर चलना होता है। जब तुम्हारा मन करे चले जाना अपने भाई से मिलने, ठीक है। अपने आप को किसी-न- किसी काम में व्यस्त रखा करो। किसी की याद नहीं सतायेगी समझी। वैसे भी खाली दिमाग में तरह-तरह की चीजे चलती हैं। घर में इतने सारे बच्चे हैं। शालू,गोलू,रीवा और माँ-पिताजी भी तो हैं। बच्चों के साथ बातें करो, थोड़ा हँसी-मजाक करो, उन्हें भी अच्छा लगेगा और तुम्हें भी घर की याद नहीं आएगी।” “हाँ ठीक है, पर मैं भी कुछ करना……।” बोलते-बोलते श्रुति की आवाज लड़खड़ा गई ।
“भाभी! आज मुझे कॉलेज जल्दी जाना है। आप मेरा लंच जल्दी बना देना।” रीवा ने भाभी श्रुति को आवाज दी। बहू, देख तो शालू ने खाना खाया की नहीं। तू जाकर उसे खिला दे। श्रुति, अच्छा ठीक है माँ जी जाती हूँ।
“भाभी! आपको तो पता है न, मुझे भिंडी बिल्कुल भी नहीं पसंद है। आप मेरे लिए पनीर की भुर्जी बना देना।” गोलु ने कहा। श्रुति,ठीक है बना कर रख दूँगी।
ठंढ़ी साँस लेते हुए….”चलो! अब तो सारे काम हो गए, थोड़ा मैं भी कुछ पढ़-लिख लूँ। वैसे भी बहुत दिनों से मैंने किताबें खोली ही नहीं।” सोचते हुए श्रुति अपने कमरे की ओर बढ़ी। तभी पिताजी की आवाज आई।
बहू, “आज शाम की चाय नहीं मिलेगी क्या? और हाँ, साथ मे गरमा गरम पकोड़े भी तलना।”
बहू, “अब तेरे पिताजी तो पकोड़े खाएंगे, उनके तो बत्तीसों दाँत हैं। मेरे लिए तो हलवा बना देना।” ठीक है,अभी बना कर लाती हूँ। श्रुति ने कहा।
धीरे-धीरे समय बीतता जा रहा था। श्रुति को अपने सपने धुंधले नजर आने लगे थे। उसे अपने लिए समय ही नही मिलता। यहाँ तक की उसे डायरी लिखने की भी फुर्सत नहीं मिलती थी। कभी कुछ लिखने बैठती, दो लाइन लिखती की बहू….बहू, आवाज आ जाती, फिर जल्दी से डायरी को सहेज कर कहीं रख देती।
श्रुति, “आज शाम को ऑफिस की तरफ से पार्टी है। उसमें हम दोनों को चलना है। शाम को मैं जल्दी घर आ जाऊँगा, तुम तैयार रहना। श्रुति, खुशी जाहिर करते हुए, “अच्छा ठीक है।” जैसे-जैसे दिन ढलता जा रहा था, श्रुति की खुशी दुगुनी होती जा रही थी।
बहू, “अगर तुम पार्टी में चली गई तो रात का भोजन कौन बनेगा?” माँ जी की कड़क आवाज कानों में पड़ते ही, श्रुति हड़बड़ाते हुए सपने से बाहर आती है। श्रुति सहम सी गई। वो सोचने लगी “मुझे तो एक दिन के लिए भी…नहीं…नहीं, एक पल के लिए भी फुर्सत नहीं है, जैसे बहू नहीं….।”
करन,“श्रुति तुम अभी तक तैयार नहीं हुई क्या? श्रुति भारी स्वर में, “मैं चली गई तो घर में खाना कौन बनाएगा?” आप ही चले जाओ, कोई मेरे बारे में पूछे तो बोलना मेरी तबीयत ठीक नहीं थी। श्रुति का मन अब अंदर- ही-अंदर डूब रहा था। वो अपने कमरे में गई और अपनी डायरी निकाल कर दो लाइन फिर से लिख दी। लिखने के बाद खुद ही सोचती, क्या लिख रही हूँ मैं? शायद अपना दर्द….शायद अपने टूटते सपने…शायद अपना अकेलापन, पर क्या ?
श्रुति सोचती है, मैं अपने लिए समय कब निकालूँ, पूरा दिन तो घर के कामों में ही निकल जाता है। मुझे विवाह करके आए हुए सालों गुजर गए। रोज सुबह की शुरुआत एक ही चीज़ से होती बहू चाय, भाभी खाना , श्रुति आज खाने में कुछ नया बना दो,तुम्हारे हाथ के खाने की डिमांड ऑफिस में ज्यादा ही हो गई है। फिर रात होते-होते मेरे डायरी के पन्नों में दो शब्द और जुड़ जाते। क्या जुड़ते पता नहीं। सिर्फ कलम चलते,शब्द तो दिखते ही नहीं क्योकि आंखो में आँसू जो होते हैं।
श्रुति की तबीयत एक दिन अचानक खराब हो गई। इतनी खराब की अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। डॉक्टर ने सिर्फ आराम करने के लिए बोला। शायद कमजोरी हो गई थी। अपना ख्याल रखती कहाँ थी। बस दूसरों का सेवा-भाव में ही उसके दिन निकल जाते थे। डॉक्टर ने कहा, बिना रिपोर्ट आए हम कुछ नहीं कह सकते। फिलहाल तो श्रुति को यहीं रहना पड़ेगा।
करन ने सोचा, श्रुति की तबीयत खराब होने की जानकारी अपने सास-ससुर को देकर, उन्हें यहाँ बुला लें। श्रुति को भी अच्छा लगेगा। उनका श्रुति से मिलना भी हो जाएगा। फोन से बात करते-करते, करन की दृष्टि उस आलमारी पर पड़ी जहाँ श्रुति अपनी डायरी रखी थी। करन ने सोचा, ये डायरी? पर डायरी तो घर में कोई नहीं लिखता। ये किसकी डायरी हो सकती है? जैसे ही करन ने उसके पन्ने पलटे, उसके आँखों को यकीन ही नहीं हो रहा था। मानों, श्रुति के सारे सपने उस डायरी के पन्नों में क़ैद हों। शादी से लेकर अब तक के सारे दर्द उस डायरी के एक-एक पन्नों से बयां हो रहा था। श्रुति ने कैसे हँस-हँस कर अपने सपने का गला घोंटा है। ना मैंने कभी उसके दर्द को देखा, ना कभी उसने अपने दर्द को दिखाया। आज मालूम हुआ मुझे की श्रुति आगे पढ़ना चाहती है। घर के कामों से उसे फुर्सत ही नहीं मिल पाई। एक पन्ने पर तो यहाँ तक लिखा था कि – “मैं आज बहुत खुश हूँ कि आज शाम में करन के साथ पार्टी में जाना है और मैं करन की दी हुई हरे रंग वाली साड़ी पहनूँगी। आज की शाम मेरे लिए यादगार शाम होगी क्योंकि शादी से अबतक, मैं करन के साथ कभी अकेले किसी पार्टी में नहीं गई।” फिर इसके अगले तारीख वाले पन्ने पर लिखा था-
करन से अब आगे उस पन्नों को पलटना ना हो सका। वह सीधे अस्पताल की ओर भागा। “श्रुति कैसी है अब? उसकी रिपोर्ट आ गई क्या?” करन ने डॉक्टर से पूछा।
“जी रिपोर्ट तो आ गई, पर…..उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं लग रही है। शायद उसे किसी चीज का सदमा लगा है। वह बेड पर सोए-सोए कुछ बड़बड़ा रही थी, मेरे सपने टूट गए, मेरे अपने….और भी पता नहीं, क्या क्या? मुझे लगता है, उसे कोई चीज अंदर-ही-अंदर बहुत परेशान कर रही है। उसे अभी, सबसे ज्यादा प्यार और स्नेह की जरूरत है। वरना तो वो जिंदा लाश जैसी पड़ी रहेगी और अंत में हम सबको उसे पागलखाने में छोडने के लिए विवश होना पड़ेगा।” डॉक्टर की बाते सुनकर श्रुति के माता-पिता विचलित हो उठते हैं। वे लोग करन से बोलते हैं, “करन बेटा, तू श्रुति को कुछ दिनों के लिए घर जाने दे। हमलोगों के साथ रहेगी तो मुझे यकीन है, मेरी बेटी बिल्कुल ठीक हो जाएगी। माँ-बाप से ज्यादा उसपर ममता कौन लुटाएगा?”
नहीं माँ जी, “श्रुति के सुख में जब मैं साथ था, तो दुख की घड़ी में उसे कैसे अकेला छोड़ सकता हूँ। श्रुति हमारी अमानत है। श्रुति की देख-भाल करने की ज़िम्मेदारी हमारी है। अब करन वो हर एक काम करता है, जो श्रुति ने अपने आंसुओं से डायरी के पन्नों को भरे थे।
डॉ.वर्षा कुमारी