“ओफ! बुढ़ापे में ये जिंदगी भी कितनी नीरस हो जाती है। कल्याणी के जाने के बाद दो पल पास बैठ कर बाते करने वाला कोई नहीं रहा। बहू अपने काम में रहती है। रोहित तो पूरे दिन कॉलेज में ही रहता है। उसकी भी तो पढ़ाई है। विनय तो अपने ऑफिस में ही आधा से ज्यादा समय बिताया करता है। ऐसे में कौन है मेरे साथ बैठ कर चार बातें करने वाला।” उमाशंकर जी घर के बरामदे में बैठे-बैठे सोच रहे थे। तभी घर के नौकर भोलू की आवाज आई, “बाबुजी खाना खा लीजिये”। उमाशंकर जी मन मसोल कर सोचते-सोचते हॉल में चले जा रहे थे, “खाना खाने का सुख तो परिवार के साथ बैठ कर ही आता है। जब तक हँसी और ठिठोली न हो तो खाने का स्वाद ही नहीं आता।” जैसे-तैसे तो दोपहर का खाना खा लिए उमाशंकर जी। जैसे ही शाम के चार,पांच बजे उन्होंने सोचा कि घर में दिन काटने से अच्छा चल कर पार्क में ही बैठूँ। वहाँ कम-से-कम हँसते खेलते लोगो को देख कर मन तो बहल ही जाता है। सबसे अच्छा तो बच्चों को खेलते देखना लगता है। मानो सारे गम भूल जाता हूँ। उमाशंकर जी पार्क में कुर्सी पर अकेले बैठ सब पर अपनी निगाहें दौड़ा रहे थे। तभी अचानक एक बुज़ुर्ग महिला आकर वहीं बैठ गई। शायद वो भी बुढ़ापे की मार खाई थी। बैठे-बैठे अचानक से बोल पड़ी, “कितना सुकून मिलता है बच्चों को हँसते-खेलते देख कर।” उमाशंकर जी के कानों में जब ये शब्द सुनाई दिए, तो उन्होने देखा कि एक बुजुर्ग महिला मेरे पीछे बैठी है। वो भी बोल पड़े, “जी हाँ! बिल्कुल सही कहा आपने। पर हमारे नसीब में ये सुख कहाँ। बुढ़ापे में दो शब्द बात करने वाला भी तो नहीं है कोई। जी मेरा नाम उमाशंकर है। मैं यहाँ पास वाले फ्लैट में रहता हूँ। मैं प्रतिदिन यहाँ आया करता हूँ।
जी मैं सावित्री हूँ। मैं भी तो यही पास वाले घर में अपने बेटे और बहू के साथ रहती हूँ। बेटा और बहू दोनों नौकरी पर चले जाते हैं। मैं घर में पूरे दिन अकेली रह जाती हूँ। जब घर में बैठे-बैठे मन नहीं लगता तो यहाँ आ जाया करती हूँ। लोगों को हँसते-खेलते देख बड़ा अच्छा लगता है। उमाशंकर जी ने कहा, “जी बिल्कुल ऐसी ही स्थिति मेरी भी है। कल्याणी के जाने के बाद से मैं बिल्कुल अकेला पड़ गया हूँ। पत्नी के साथ सुख-दुख बाँटते-बाँटते दिन कैसे निकल जाता था पता ही नहीं चलता था। घर में बेटा,बहू और एक बच्चा है। पर सभी अपने-अपने जिंदगी में व्यस्त है। एक नौकर है भोलू, उससे थोड़ा बहुत बातें कर लेता हूं। वह भी कहाँ फुर्सत वाला है। घर के सारे कामों में ही लगा रहता है। बस यही है मेरी दुनिया।” अब प्रत्येक दिन ये शिलशिला चलता रहा। उमाशंकर जी और सावित्री जी प्रतिदिन संध्या समय पार्क में जाया करते। वो दोनों अपना-अपना सुख-दुख बयां करते। एक दिन उमाशंकर जी ने सावित्री जी से कहा, “जी आप भी तो अपनी कुछ सुनाइए। परिवार में कौन-कौन है? आपका बेटा क्या करता है? सावित्री जी ने कहा, ” बस कुछ आपकी तरह ही है मेरी भी जिंदगी। सागर के पिता बीमारी की वजह से चल बसे। तब से मैं अकेली जिंदगी काट रही हूँ।घर में बेटा,बहू और बच्चे सब हैं। किसी के पास समय नही होता कि मेरे पास कोई बैठ कर मेरा हाल-चाल पूछे, मुझसे चार बातें करे। बेटा और बहू एक ही कार्यालय में नौकरी करते हैं। 20 वर्ष का एक बेटा है आदि, जो पढ़ने के लिए विदेश गया है। वो फोन पर ही दादी का हाल-चाल पूछता है। बोलता है मैं अब घर नही आऊँगा। मेरा मन यहीं लगता है। यहाँ सब कुछ बहुत अच्छा है। वो दस वर्ष का था तभी बेटा और बहू ने उसे वहाँ भेज दिया। दोनों अपने काम में इतने व्यस्त रहते थे कि आदि के लिए भी समय नहीं निकाल पाते इसीलिए अच्छी शिक्षा के लिए बेटा,बहू ने ऐसे रास्ते अपनाए। अब किसे क्या बोल सकते। उसका नतीजा यह हुआ है कि अब वो अपने देश आने का नाम ही नहीं लेता। यही तो स्थिति है हमारे घर की।” उमाशंकर जी और सावित्री जी घंटों पार्क में समय बिताया करते। उमाशंकर जी बोलते बुढ़ापे में हमें क्या चाहिए। बस बाते करने वाले लोग मिल जाए तो फिर पुछना ही क्या? उन्हें एक दूसरे से बात करना बेहद अच्छा लगने लगा था। धीरे-धीरे अब उनका अकेलापन कम खटकने लगा था। मानो उनके जीवन में रोशनी की किरणें पड़ने लगी। अब तो शाम होने का भी इन्तेजार नहीं रहता। क्योंकि अब तो घर से भी आना-जाना शुरू हो गया था। जब भी लगता कि वो लोग अकेला महसूस कर रहे हैं,तुरंत चले जाते एक दूसरे के घर। फिर चाय और पकौड़ियों की चुस्कियों के साथ घंटों ठहाके भी लगते।
एक दिन अचानक सावित्री जी की तबीयत बिगड़ गई। उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा। डॉक्टर ने उन्हें साफ तौर पर कह दिया कि चाहे कुछ भी हो जाए आपको एक महीने तक तो यहीं रहना पड़ेगा अस्पताल में। डॉक्टर सावित्री जी के बेटे और बहू को अच्छे से देख-भाल करने के लिए कहा । सावित्री जी को पता है कि बेटा और बहू को कितना काम होता है। यही सोच कर उन्हें प्रतिदिन अस्पताल आने से मना कर दिया। ये बोल कर कि बस एक नर्स को रख दो वही सब संभाल लेगी। पर अपने तो अपने ही होते हैं। सावित्री जी को हर दिन इन्तेजार रहता था कि बेटा और बहू मिलने जरूर आएंगे। पर उनका इंतजार करना खाली ही चला जाता था। सावित्री जी के चेहरे पर तो मुस्कान होती थी पर दिल में हजारों दर्द हुआ करते थे। अपनों की मिलने की आस हुआ करती थी। निगाहें बस बेटे और बहू की को ही ढूँढती थी।
सावित्री जी की तबीयत खराब होने की जानकारी मिलते ही उमाशंकर जी अस्पताल की ओर चल पड़ते हैं। वह भी सावित्री जी का पूरा ख़याल रखते हैं। उन्हें हँसाते हैं । अच्छी-अच्छी किताबें पढ़ कर सुनाते हैं । कहानियां सुनाते हैं । ये सब करते-करते कैसे एक माह गुजर गए सावित्री जी को एहसास ही नहीं हुआ।
एक माह पूरा होते ही डॉक्टर ने सावित्री जी का फिर से चेकअप किया। उनकी स्थिति में काफी सुधार हो चुका था। डॉक्टर को सावित्री जी के इतनी जल्दी ठीक होने की उम्मीद नहीं थी। सावित्री जी के पास उमाशंकर जी को देखकर डॉक्टर ने उनसे पूछा, “जी आप इनके रिश्तेदार हैं क्या?” उमाशंकर जी ने कहा, “जी नहीं,मैं इंनका पड़ोसी हूँ। बुढ़ापे में घर में अकेले मन नहीं लग रहा था तो सोचा क्यों न सावित्री जी की थोड़ी सेवा-भाव कर लूँ। इन्हें भी थोड़ा सहारा मिल जाएगा और मेरा भी मन लगा रहेगा। बेटे और बहू को समय नहीं है माँ से मिलने की तो……खैर छोड़िए। मेरे साथ ठहाके लगाने के लिए सावित्री जी जल्दी ठीक हो गई और क्या चाहिए। (उमाशंकर जी ने हँसते हुये कहा)।
डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए उमाशंकर जी से कहा, “जी! आपके ही सेवा का फल है कि आज सावित्री जी पूरी तरह स्वस्थ हो चुकी हैं। आज एहसास हुआ कि रिश्तों से ज्यादा महत्वपूर्ण इंसान के अंदर इंसानियत का भाव होना जरुरी है।”
डॉ.वर्षा कुमारी