आज गाँव वालों की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं है। क्योंकि आज पहली बार बीरपुर गाँव में अस्पताल का उद्घाटन होने जा रहा है। इस गाँव में लगभग सारी सुविधाएं तो उपलब्ध हो गई है। पर एक अस्पताल की आज भी कमी थी। वह भी आज पूरी होने जा रही है। डॉक्टर भी कोई ऐसा-वैसा झोलाछाप नहीं है। विदेश से पढ़ाई कर के आ रहा है। गाँव वालों के दिलों में बस एक ही दुआ थी कि चलो अब किसी की मृत्यु यहाँ डॉक्टर के ना होने से तो नहीं होगी। बीरपुर गाँव में ना जाने कितनों की साँसे रुक गई बीमारी में तुरंत इलाज ना होने की वजह से। रोते बिलखते परिजनों को यहाँ प्रतिदिन देखा जाता है। जितने खुश गाँव वाले थे उससे ज्यादा खुश आज आशिष की माँ रूपवती जी और पिता स्यामलाल थे। खुशी जाहिर करते हुए रूपवती जी श्यामलाल से कहती है, “आज कितनी खुशी का दिन है। आज हमारे बेटे का भी मुंबई में ज्वाइनिंग है और हमारे गाँव में भी अस्पताल खुलने जा रहा है। अब हमें इलाज के लिए कहीं दूर शहर में नहीं जाना पड़ेगा। सुना है कि, डॉक्टर भी हमारे बेटा आशीष की तरह ही विदेश से पढ़ाई कर के आया है। चलो आज देखते हैं डॉक्टर साहब को। सच में डॉक्टर भी किस्मत वाले ही बनते हैं। उन्हें दूसरों की सेवा करने का मौका जो मिल जाता है। मैंने तो यहाँ तक सुना है कि अपने गाँव वालों का इलाज मुफत में करेगा। मेरी तो बड़ी इच्छा हो रही है उसे देखने की। बाहर सब बोल रहे हैं कि दिन ढलते ही आ जायेगा। आज पूरे गाँव को सजता देख कर बड़ा अच्छा लग रहा है।” रुपवती की बातें सुनते-सुनते श्यामलाल को अपने पिता की याद आ जाती है। सोचते हैं, काश गाँव में अस्पताल का निर्माण बहुत पहले हो गया होता तो पिता जी आज हमारे साथ होते। सोचते-सोचते उनकी आँखें डबडबा गई। पत्नी रुपवती से कहते हैं कि, “चाहे कितना भी दुःख सहे हमनें, अपने पेट काटे पर बेटे को डॉक्टर बना कर बड़ा ही नेक काम किया है। आज वो भी दूसरों की जान बचाएगा। हजारों दुआएं मिलेंगीं उसे। बस आज के दिन हम उसके साथ नहीं है। इसीलिए मन कचोट रहा है मेरा। कितना अच्छा लगेगा वो डॉक्टर का पोषाक पहनकर लोगो का इलाज करेगा। आज के दिन हम भी उसके साथ होते। पर सब इतनी जल्दी हुआ कि हमें जाने का मौका ही नहीं मिल पाया। वो भी जहाज से हम अपनपढ़ लोग अकेले कैसे जायँगे। बोलते-बोलते श्यामलाल जी को हंसी आ गई।”
आशीष की मेहनत और तपस्या का फल आज मिल ही गया। अपने हाथ में ज्वाइनिंग लेटर को लिए आशीष सोचता है कि अब बीरपुर गाँव में अस्पताल ना होने की वजह से किसी की मृत्यु नहीं होगी। आज भी मुझे याद है अपने दादा जी का चेहरा। पापा किस कदर लाचार थे इलाज ना होने की वजह से। वो चिल्लाए, चीखें और चुप हो गए क्योंकि जब गाँव में कोई डॉक्टर ही उपलब्ध नही था तो इलाज कौन करता। पर मुझे आज भी याद है वो दिन। इसीलिए मैंने डॉक्टर बनने का निर्णय लिया था और मेरा निर्णय था कि मैं अपने गाँव में ही डॉक्टर बनकर जाऊँ। सालों बाद मेरे कदम मेरे गाँव में पड़ेंगे। माँ-पिता जी के लिए तो ये सरप्राइज रहेगा कि मैं उन्हीं के पास अपने ही गांव जा रहा हूँ। उन्हें तो यही पता है कि आज मेरी मुम्बई में ज्वाइनिंग है क्योंकि उनका सपना था मैं बड़ा आदमी बनूँ और बड़े शहर में रहूँ। खैर ये बाते तो बाद की है।
डॉक्टर के स्वागत की तैयारी अब पूरी हो चुकी थी । हर जगह फूलों का गुच्छा दिख रहा था । कहीं पूरियां तो कहीं मिठाइयाँ बन रही थी । पूरे गाँव को न्यौता मिला था भोजन करने के लिए। अस्पताल को और डॉक्टर को देखने के लिए लोगों का तांता लग चुका था । ढोल, नगाड़े के साथ आशीष की गाड़ी आ रही थी। पूरा गाँव पीछे-पीछे चल रहा था। आशीष बहुत छोटा था तभी वो गाँव से दूर पढ़ने के लिए चला गया था। इसीलिए गाँव में आशीष को कोई नहीं पहचान पाता है। आशीष गाँव आते ही सबसे पहले अपने घर जाता है। आशीष को देख कर रुपवती जी और श्यामलाल जी भौचक्का रह जाते हैं, “बेटा तू! यहाँ गाँव में अभी? तू तो मुम्बई में था न?” हाँ माँ-पिताजी मैं सब कुछ समझाता हूँ आपलोगों को। फिलहाल तो आपलोग मेरे साथ चलिए। अस्पताल के सामने डॉक्टर यानी आशीष का इंतजार हो रहा था फीता काट कर उद्घाटन करने के लिए। आशीष अपने माँ पिताजी को लेकर अस्पताल पहुचता है। ये शुभ अवसर आशीष अपने पिता को देते हुए कहता है, ” पिताजी मैं ही हूँ इस बीरपुर गाँव का डॉक्टर। मैंने ही ये अस्पताल बनवाएं हैं। आपको याद है, दादा जी आज हमारे साथ नहीं है तो इसीलिए कि उनका इलाज समय पर नही हो सका था। मुझे अभी भी याद है आपका वो चेहरा। कितने लाचार दिख रहे थे आप। मैं तो बहुत छोटा था उस समय। तब मैं कुछ नहीं कर सका था। पर अब मैं अपने बच्चों को या किसी के भी बच्चों को किसी बीमारी की वजह से अपने दादाजी को खोने नहीं दूंगा। चलिए पिताजी आगे आइये और फीता काट कर शुभ काम का शुभारंभ करिए। डॉ.वर्षा कुमारी