भारत में इस समय वृद्धों की संख्या लगभग 10 करोड़ के आसपास है जो 2050 तक 32 करोड़ 30 लाख हो जाएगी जो भारत की कुल संख्या का 20 फ़ीसदी है। स्वास्थ्य सुविधाओं के विस्तार के और सर्वजनसुलभ होने से औसत आयु में 5 वर्ष की वृद्धि हुई है। इसके साथ ही देश में बूढ़ों की संख्या का अनुपात बढ़ रहा है लेकिन उनकी स्थिति विचारणीय है। बड़े-बड़े शहरों में सेवानिवृत्त लोगों के लिए सुविधाजनक घरों के विज्ञापन आम हो गई है। इसका मतलब यह है कि सामान्य पारिवारिक संरचना से वे धीरे-धीरे बाहर हो रहे हैं। पति-पत्नी और बच्चों के संसार में माता-पिता अनावश्यक बोझ बन गए हैं। हमारे देश में या हमारे समाज में लोग वृद्धों की मानसिकता को अभी भी नहीं समझ रहे हैं। क्या वृद्ध होने पर उनके लिए बस एक ही रास्ता बचता है कि वे या तो घर के किसी एक कोने में पड़े रहे, या उनकी नियति यही है कि उन्हें घर में अकेला छोड़ दिया जाए और अपनी दुनिया कहीं अलग जाकर बसा लिया जाए ।
अगर हम गौर करें तो हमें यही समझना चाहिए कि बच्चे और वृद्ध में कोई अंतर नहीं होता है क्योंकि जो हरकत बच्चे करते हैं वही वृद्ध करते हैं। फिर भी लोग वृद्धों की हरकतों को नजरअंदाज कर देते हैं। हमें उनकी आदतों को अनदेखा नहीं करना चाहिए बल्कि हमें उनके हरकतों को ध्यान पूर्वक देखना और समझना चाहिए कि वे क्या चाहते हैं, आखिर उनकी इच्छा क्या है। कहीं उनको किसी चीज की जरूरत तो नहीं है। जिस प्रकार हम बच्चों की छोटी-छोटी चीजों पर गौर करते हैं, समझते हैं और उनकी इच्छाओं को पूरी करने की कोशिश करते हैं, उसी प्रकार हमें वृद्धों को भी देखना और उनकी भावनाओं को समझने की पूरी-पूरी कोशिश करनी चाहिए।
जब व्यक्ति वृद्धावस्था में प्रवेश करता है तब उसके सोचने समझने की क्षमता कम हो जाती है। उसे खुद भी नहीं पता होता कि वह कब और कौन सी हरकत कर बैठता है।
हम यह भी देखते हैं कि हमारे समाज में वृद्धों के लिए आश्रम बने हुए हैं। जब बूढ़े लोग अपने घर परिवार के जुल्म, अत्याचार से परेशान हो जाते हैं तो उन्हें वृद्ध आश्रम का रास्ता ही दिखाई देता है। वहाँ जाकर वह सुकून की जिंदगी जीना चाहते हैं। बूढ़े होने पर उनकी दुनिया एकदम अलग हो जाती है इसलिए वह शांति पसंद करते हैं। उन्हें ज्यादा चहल-पहल, शोर-शराबा पसंद नहीं आता है। उनकी मानसिकता ही ऐसी हो जाती है। बुढ़ापा ऐसी चीज है जिसे हर मनुष्य को देखना पड़ता है। बुढ़ापे की बेबसी, लाचारी, भयावहता को सभी मनुष्य को एक-ना-एक बार महसूस करना ही हैं। यह हम सभी लोग जानते हैं कि बुढ़ापा प्राणी मात्र की नियति है। बड़े-बूढ़ों का सम्मान क्या होता है आज का जो हमारा समाज है यह भूलता जा रहा है। अपनी भाग-दौड़ की जिंदगी में वे उन्हें घर में अकेले छोड़ देते हैं। यहां तक कि वह अपना खाना तक भी अलग बनाने के लिए विवश हो जाते हैं। उनकी जरूरतों के बारे में लोग पूछना तक भी जरूरी नहीं समझते हैं कि उन्हें क्या चाहिए क्या नहीं चाहिए। इन सभी से परिवार वालों को कोई मतलब नहीं होता है। अगर हम कहें कि आज समाज में कहीं-ना-कहीं बूढ़ों की स्थिति नौकरों जैसी हो गई है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि, हमारा समाज यह सब सोचने पर हमें मजबूर कर रहा है। कई घरों में तो लोग बुजुर्गों से सही ढंग से बात तक नहीं करते हैं उन पर चिल्लाते हैं, झल्लाते हैं, उन्हें गालियां तक भी देते है, अपनी मर्जी थोपते हैं उन पर। उन्हें क्या पसंद है कभी जानने की कोशिश नहीं करते, घर के एक कोने तक उन्हें सीमित कर देते हैं। यहां तक कि उन्हें समय पर खाना भी नहीं देते। अगर घर में कुछ बच गया तो उन्हें दे दिया जाता है अन्यथा नहीं। आज यही दशा है हमारे समाज में वृद्धों की, लेकिन मेरी दृष्टि में जो बड़े बुजुर्गों की सेवा नहीं करते, उन्हें सम्मान नहीं देते, उनकी कदर नहीं करते, वह अपनी जिंदगी में कभी सम्मान पाने योग्य भी नहीं होंगे।
बहुत पहले हमने एक फिल्म देखी थी “आ अब लौट चले” उस फिल्म में अमेरिका में बसा एक भारतीय युवा भारत से अपने माँ-बाप को बुलाकर उनसे नौकरों जैसा बर्ताव करता है। इतने जरूरी संबंध की यह फजीहत देखकर दिल दहल जाता है लेकिन आज यह लोग भूल रहे हैं कि जिन घरों में बड़े-बूढ़े लोग हैं, वह घर सही दिशा में चलता है। बड़े बुजुर्गों के बताए रास्ते पर चलने से, उनकी कही बातों को सुनने से हमें बहुत प्रेरणा मिलती है, क्योंकि बुजुर्गों के पास दीर्घ अनुभव होता है। इसीलिए तो बुजुर्गों की राय मांगी जाती है। आचार संहिता में कहा गया है कि –
अभिवादन शीलस्य नित्य वृद्धोंपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते, आयुर्विधा यशोबलम।।
वह सभा व्यर्थ है जहाँ वृद्ध न हों – न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा:।
वृद्धावस्था की दुरावस्था/दुर्दशा का उदाहरण तो हमें बहुत मिलता है मगर हम यहाँ हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार ‘भीष्म साहनी’ की कहानी “चीफ की दावत” को देख सकते हैं। इस कहानी में शामनाथ का एक व्यक्ति है जो अपनी माँ को वस्तु के रूप में देखता है। एक दिन शामनाथ अपने ऑफिस के साहब को दावत देता है और अपनी पत्नी से तैयारी करने के लिए कहता है। ऐसे में सबसे पहले उसके मन में यही बात आती है कि माँ को कहाँ रखेंगे। वह सोचता है कि बूढ़ी माँ के चलते हमारे बॉस के सामने मेरी इज्जत कम हो जाएगी, साहब सोचेंगे कि इसकी माँ कैसी है। बूढ़े लोगों का रहन-सहन तो अलग होता ही है, तो क्या घर में अगर कोई बूढ़ा व्यक्ति रहता है तो घरवालों की इज्जत चली जाती है। पहले तो शामनाथ सोचता है कि माँ को मोहल्ले वाले के घर भेज देंगे, फिर सोचता है कि अगर ये आज जाएंगी तो हमेशा के लिए इनका आना-जाना हो जाएगा। फिर वह सोचता है की माँ से कहेंगे कि आज जल्दी खाना खा लेंगी और बाहर बरामदे में जाकर कुर्सी पर अच्छे से बैठी रहेंगी पैर नीचे करके। माँ को वह सोने के लिए भी नहीं कहता है क्योंकि वह सोएंगी तो जोर की खर्राटे लेने लगेंगी तो बॉस क्या सोचेंगे। शामनाथ हर बात में माँ पर अपनी मर्जी थोपता है। उसे अपनी माँ का व्यवहार, रहन-सहन, पहनावा, उठना बैठना कुछ भी पसंद नहीं आता है, क्योंकि वह अभी युवा है और माँ युवावस्था पार कर चुकी हैं। वह अब बूढ़ी हो गई हैं, उनके सोचने समझने की भी शक्ति कम हो गई है। बूढ़े होने पर मांसपेशियां स्थिर हो जाती है और शरीर काम करना धीरे-धीरे कम कर देता है। बेचारी माँ जैसे-जैसे रात बढ़ती जाती वह नौ-दस बजते-बजते माला फेरते- फेरते कुर्सी पर पैर ऊपर करके सो जाती हैं। इतने में सभी लोग खाना खाकर घर में इधर-उधर घूमने लगते हैं। तभी शामनाथ के बॉस की नजर कुर्सी पर बैठी माँ पर जाती है। शामनाथ बताते हैं कि यह उनकी माँ हैं। मन-ही-मन तो उन्हें बहुत गुस्सा आ रहा था अपनी माँ की स्थिति को देखकर। इतने में बॉस उनसे हाथ मिलाते हैं। हम पाते हैं कि उसी बूढ़ी माँ के कारण शामनाथ का साहब खुश हो जाता है और उनसे बहुत सारी बातें भी करता है और विवाह का गीत भी सुनता है –
हरिया नी माये नी भैणे
हरिया ते भागी भरिया है। (विवाह गीत)
यह सिर्फ एक शामनाथ की ही स्थिति नहीं है। हमारे समाज में ऐसे कितने शामनाथ मिलेंगे जो वृद्धों को सिर्फ वस्तु के रूप में देखते हैं और उनकी स्थिति पर ही उन्हें छोड़ देते हैं।
इसी प्रकार हम हिन्दी कथाकार ‘प्रेमचंद’ की कहानी “बूढ़ी काकी” को देख सकते हैं। यह एक मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है। इस कहानी में एक बूढ़ी माँ है जिनका इस दुनिया में कोई नहीं है। एक भतीजा है जिसके पास बूढ़ी काकी रहती हैं। अपनी सारी जायदाद अपने भतीजे बुद्धिराम के नाम पर ही लिख चुकी हैं। बुद्धिराम ने संपत्ति लिखवाते समय काकी से तो खूब लंबे-चौड़े वादे किए लेकिन वह सभी वादे दिखावे थे। उन्हें उस घर में भरपेट भोजन के लिए भी तरसना पड़ता था। जब उन्हें जोर की भूख लगती तो वह बच्चों की तरह जोर-जोर से गला फाड़ कर रोना शुरू कर देती थी तभी बुद्धिराम उन पर बरस पढ़ते थे। बच्चों की तो स्वाभाविक स्थिति होती है वह जैसा देखते हैं वैसा ही करते हैं। अपने माँ-बाप को देखकर बुद्धिराम के बच्चे भी उन्हें ऐसे ही करते थे, उन्हें सताते थे, कोई चुटकी काट कर भागता, कोई उन पर पानी की कुल्ली कर देता, उनके पास रोने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचता था। अगर वह बच्चों को गालियां देती तो बुद्धिराम की पत्नी रूपा उन पर बरस पड़ती थी। इस परिवार में सिर्फ काकी से लगाओ है तो वह बुद्धिराम की छोटी बेटी लाडली है। वह हमेशा काकी के पास ही रहती थी।
एक दिन बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम का तिलक था। रात के समय बुद्धिराम के द्वार पर शहनाई बज रही थी। पूरे गाँव के लोगों को न्योता दिया गया था, सभी बुद्धिराम के घर पधारे हुए थे। गाना-बजाना जोरों से चल रहा था। रूपा घर के कामों में व्यस्त थी। कड़ाह में पूड़ियाँ और कचौड़ियाँ बन रही थी। शायद अब मुझे पूड़ियाँ ना मिले खाने के लिए। इतनी देर हो गई कब से पूड़ियों की सुगंध आ रही है और मुझे बेचैन कर रही है। अभी तक कोई भोजन लेकर नहीं आया मेरे लिए। लगता है सभी लोग भोजन कर चुके हैं मेरे लिए कुछ भी नहीं बचा है। फिर वह सोचती हैं कि जब मुझे रोटियों के ही लाले पड़े हैं, रोटी ही भर पेट मुझे नहीं मिलती है तो इतनी सुगंधित पूड़ियाँ कहाँ से मिलेगी। यह सब सोच-सोच कर उन्हें रोना आता है। लेकिन वह रो भी नहीं पाती हैं क्योंकि उनका रोना भी व्यर्थ है। कौन सुनेगा उनके रोने को, कौन पूछेगा उनसे कि क्यों रो रही हैं। अंत में उनसे नहीं रहा जाता तो वह खुद ही देखने के लिए बाहर निकल जाती हैं जहाँ खाना बन रहा होता है। इतने में बुद्धिराम की दृष्टि उन पर जाती है। वह आग बबूला हो जाते हैं। काकी को घसीटते हुए लाकर कमरे में पटक देते हैं। इसी गुस्से के कारण पत्नी रूपा उन्हें रात में खाना भी नहीं देती। काकी रात में बिना खाए ही सो जाती हैं और आधी रात को वह झूठे पत्तलों से पूड़ियाँ बीन-बीनकर खाती हैं।
प्रेमचंद की यह कहानी को पढ़ के यह पता चलता है कि बुढ़ापे में विधवा स्त्रियों की जिंदगी कितनी यंत्रणादायक होती है। बुढ़ापा तो वैसे सब के लिए कष्टदायक है लेकिन उनके लिए जिनका अपना कहने के लिए कोई नहीं होता है और भी बदतर है। ‘प्रेमचंद’ की ही एक और दूसरी कहानी “पंच परमेश्वर” में एक ऐसे ही स्त्री खाला जान का दुखद जीवन अभिव्यक्त हुआ है। खाला जान के साथ जो शेख जुम्मन का व्यवहार है वह यह दिखाता है कि क्या हिंदू समाज और क्या मुस्लिम समाज दोनों में स्त्रियों की स्थिति एक ही है।
डॉ.वर्षा कुमारी