जीवन परिचय
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर सन 1850, में उत्तर प्रदेश के काशी नगरी में हुआ था। इनका मूल नाम हरिश्चंद्र था। भारतेंदु इनकी उपाधि थी। इनके पिता का नाम गोपाल चंद्र था जो उच्च कोटि के कवि थे। भारतेंदु जब 5 वर्ष के थे तभी उनकी मां चल बसी थी। 11 वर्ष की अवस्था में इन्होंने अपने पिता को भी खो दिया। जिसकी वजह से इनकी प्रारंभिक शिक्षा ठीक प्रकार से नहीं हो सकी थी। इन्होंने घर में ही उर्दू, हिंदी, अंग्रेजी और बंगला भाषाओं का अध्ययन किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र का विवाह 13 वर्ष की आयु में ही हो गई थी। ये उदारवादी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे। ये दिल खोलकर हर चीज लुटाते थे। इनकी साहित्य के प्रति सच्ची सेवा को देखा जा सकता है। इनकी मृत्यु 1885 ई. यानि 35 साल की अल्प आयु में ही हो गई थी ।
साहित्यिक सेवा
भारतेंदु ने साहित्यिक सेवा 15 वर्ष की आयु में ही प्रारंभ कर दी थी। हिंदी साहित्य में नवजागरण लाने में भारतेंदु का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसीलिए हिंदी साहित्य में आधुनिक काल की शुरुआत भारतेंदु हरिश्चंद्र से मानी जाती है। इनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर ही इन्हें काशी के विद्वानों द्वारा 1880 में ‘भारतेंदु’ की उपाधि से नवाजा गया। जिसका अर्थ होता है “भारत का चंद्रमा”। यह नाटककार, कवि, गद्यकर,पत्रकार और व्यंगकार थे। इन्होंने स्त्रियों के पक्ष में भी अपनी आवाज बुलंद की थी जिसका उदाहरण ‘बालाबोधीनी’ पत्रिका है। इसे भारतेंदु ने स्त्रियों के लिए ही निकाला था। इन्होंने तीन पत्रिकाओं का संपादन किया था। ‘कविवचन सुधा’, ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ और ‘बालाबोधिनी’ पत्रिका। 18 वर्ष की अवस्था में इन्होंने ‘कविवचनसुधा’ नामक पत्रिका निकाली थी। ‘कविवचन सुधा’ ऐसी पत्रिका थी जिसमें बड़े-से-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थी। बालमुकुंद के शब्दों में “यद्यपि हिंदी भाषा के प्रेमी उस समय बहुत कम थे तो भी हरिश्चंद्र के ललित लेखो ने लोगों के जी में ऐसी जगह कर ली थी कि कविवचन सुधा के हर नंबर के लिए लोगों को टकटकी लगाए रहना पड़ता था”।
भारतेंदु युग की प्रमुख पत्र पत्रिकाएं तथा संपादक और वर्ष
कवि वचन सुधा– भारतेंदु हरिश्चंद्र, काशी, 1868 ई.
हरिश्चंद्र मैगजीन– भारतेंदु हरिश्चंद्र, काशी, 1873 ई.
हरिश्चंद्र चंद्रिका- भारतेंदु हरिश्चंद्र, काशी, 1874 ई.
आनंद कादंबिनी– बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, मिर्जापुर, 1881ई.
हिंदी प्रदीप– पं.बालकृष्ण भट्ट, इलाहाबाद, 1877 ई.
ब्राह्मण– पं.प्रतापनारायण मिश्र, कानपुर, 1883 ई.
उपन्यास
पूर्णप्रकाश, चंद्रप्रभा
कहानी
अद्भुत अपूर्व स्वप्न
आत्मकथा
एक कहानी-कुछ आपबीती, कुछ जगबीती
यात्रा वृत्तांत
सरयू पार की यात्रा,लखनऊ
निबंध संग्रह
कालचक्र, हिंदी भाषा, जातीय संगीत, स्वर्ग में विचार सभा, लेवी प्राण लेवी, नाटक, भारत वर्ष की उन्नति कैसे हो सकती है?, संगीत सार।
भारतेंदु युग में हिंदी गद्य का विकास बखूबी हुआ। इस युग का मुख्य संघर्ष हिंदी के लिए था। हिंदी को प्रतिष्ठा कैसे दिलाया जाए, इसकी स्वीकृति के लिए सभी लोग संघर्षरत थे। फारसी के स्थान पर हिंदी का बोलबाला हो यही प्रयत्न जागरण का आधार बना। भारतेंदु ने अपनी रचनाओं तथा भाषणों से जनता को जागरण का संदेश दिया। उनके इस कार्य में उन्हें भरपूर सहयोग तथा समर्थन मिला। उन्होंने जिस प्रकार हिंदी की सेवा की वह अविस्मरणीय है। आइए हम देखते हैं भारतेंदु युग में गद्य विधाओं का किस प्रकार विकास हुआ।
नाटक
हिंदी साहित्य में नाटकों की शुरुआत भारतेंदु हरिश्चंद्र से ही मानी जाती है। इन्होंने नाटक को एक नई दिशा प्रदान की। इन्होंने नाटक लिखने की शुरुआत बांग्ला के ‘विद्यासुंदर’ (1868)नाटक के अनुवाद से की।इस युग के सर्वश्रेष्ठ नाटककार भारतेंदु हरिश्चंद्र है। इन्होंने कई नाटक लिखे। जिसमे अनुदित, मौलिक इन सभी को मिलाकर इन्होंने 17 नाटकों की रचना की है। इस युग में नाटक की रचना का उद्देश्य लोगों का मनोरंजन करना तथा साथ ही लोगों को जागृत करना और उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न करना था। इनके नाटक है-
मौलिक नाटक
वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1873), सत्य हरिश्चंद्र (1875), श्री चंद्रावली (1876), भारत-दुर्दशा (1880), अंधेर नगरी (1881), नीलदेवी (1881).
अनुदित नाटक
विद्यासुंदर(1868)- संस्कृत ‘चौरपंचाशिका’ के यतीन्द्रमोहन ठाकुर कृत बंगला संस्करण का हिंदी अनुवाद
पाखंड-विडंबन( 1872)- कृष्ण मिश्र-कृत ‘प्रबोधचंद्रोदय’ नाटक के तृतीय अंक का अनुवाद
धनंजय विजय(1873)- व्यायोग, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद
कर्पूरमंजरी(1875)- सट्टक, राजशेखर कवि कृत प्राकृत नाटक का अनुवाद
भारत जननी(1877)- नाट्यगीत, बंगला की ‘भारत माता’ के हिंदी अनुवाद पर आधारित
मुद्राराक्षस(1878)- विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद
दुर्लभ बंधु (1880)- शेक्सपियर के ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का अनुवाद
उपन्यास
भारतेंदु युग में उपन्यास लिखने की प्रेरणा लेखकों को बंगला और अंग्रेजी के उपन्यासों से ही मिली। इस युग में ऐतिहासिक, सामाजिक, जासूसी, तिलस्मी-ऐयारी और रोमानी जैसी उपन्यासों की परंपरा उपज रही थी। इसी परंपरा को हम द्विवेदी युग में फला-फूला हुआ पाते हैं। इस युग में श्रद्धाराम फुल्लौरी कृत (भाग्यवती)1877, और लाला श्रीनिवास दास कृत (परीक्षा गुरु)1882, उपन्यास की रचना हुई थी। इसके अलावा बालकृष्ण भट्ट (रहस्यकथा) 1879, (नूतन ब्रह्मचारी)1886, और (सौ अजान एक सुजान)1892, राधाकृष्ण दास (निस्सहाय हिंदू) 1890, लज्जाराम शर्मा (धूर्त रसिकलाल)1890 और (स्वतंत्र रमा और परतंत्र लक्ष्मी)1899, किशोरीलाल गोस्वामी (त्रिवेणी) और (सौभाग्यश्री) 1890, उपन्यासों को देखा जा सकता है। इन उपन्यासों की रचना का मुख्य उद्देश्य समाज की कुरीतियों को सामने लाना तथा उनका विरोध करना था। वही तिलिस्मी-ऐयारी उपन्यासों पर दृष्टि डालें तो देवकीनंदन खत्री का ‘चंद्रकांता’ (1882), ‘चंद्रकांता संतति’ (24 भाग, 1896), ‘नरेंद्र मोहिनी’ (1893), ‘वीरेंद्र वीर’ (1895), ‘कुसुम कुमारी’ (1899), और ’हरेकृष्ण जौहर का ‘कुसुमलता’ (1899), को देखा जा सकता है। इस युग में ऐसे उपन्यास बहुत ही लोकप्रिय हुए थे। ‘चंद्रकांता संतति’ उपन्यास इतना चर्चित हुआ कि इसको पढ़ने के लिए कई उर्दूजीवी लोगों ने हिंदी सीखना शुरू कर दिया।
कहानी
इस युग में कहानियों का विकास ठीक प्रकार से नहीं हुआ था। जैसे मुंशी नवल किशोर द्वारा संपादित ‘मनोहर कहानी’ (1880), में संकलित एक सौ कहानियां, अंबिकादत्त व्यास कृत्य ‘कथा कुसुम कलिका'(1888), राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद कृत ‘वामा -मनोरंजन’ (1886),और चंडी प्रसाद सिंह कृत ‘हास्य रतन’ (1886), ऐसी कहानियां उस समय शिक्षा नीति से प्रेरित इतिहास पुराण-कथित शिक्षा,नीति या हास्य-प्रधान कथाएं थी ।ऐसी कहानियों को लेखकों ने लिखा और प्रकाशित करवाया।
निबंध
भारतेंदु युग में सबसे अधिक निबंध कला का विकास हुआ, क्योंकि निबंधों का संबंध पत्र-पत्रिकाओं से था। उस समय लेखकों के पास अनगिनत विषय थे। विचारों को व्यक्त करने का और उसे लोगों तक पहुंचाने का पत्र-पत्रिका बहुत ही अच्छा और सस्ता माध्यम था, इसीलिए समाज के कल्याण के लिए लोगों ने पत्र-पत्रिकाओं का सहारा लिया। प्रताप नारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट ने निबंध विधा को खूब समृद्ध किया इसीलिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इन्हें हिंदी का ‘स्टील’ और ‘एडीसन’ कहा है। इस युग के प्रमुख निबंधकार हैं-भारतेंदु हरिश्चंद्र (हरिश्चंद्र मैगजीन), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राम्हण), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप), बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ (आनंदकादंबिनी), लाला श्रीनिवास दास (सदादर्श),राधाचरण गोस्वामी (भारतेंदु),काशीनाथ खत्री।
इस युग में निबंधों की सबसे बड़ी विशेषता उनके माध्यम से प्रकट होने वाला व्यापक राष्ट्रीय सांस्कृतिक जागरण था।
आलोचना
इस युग में ‘हिंदी प्रदीप’ नामक एक ही ऐसा पत्र था जो आलोचनाएं प्रकाशित करता था। इस युग में तीन प्रकार की आलोचनाएं देखी जा सकती है। (1) रीतिकालीन लक्षण ग्रंथों की परंपरा में लिखित सैद्धांतिक आलोचना (2) ब्रजभाषा एवं खड़ीबोली-गध में लिखी गई टीकाओं के रूप में प्रचलित आलोचना (3) इतिहास-ग्रंथों में कवि परिचय के रूप में लिखी गई आलोचना। भारतेंदु युग में आधुनिक आलोचना का रूप यदि बीज रूप में कहीं सुरक्षित है तो वह पत्र-पत्रिकाओं में तथा प्रकाशित पुस्तक समीक्षाओं में ही है।
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निष्कर्षत: भारतेंदु ने जिस संस्कृति का निर्माण किया है जनवादी थी। उन्होंने संस्कृति, धर्म, शिष्टाचार, साहित्य पर पुरोहितों- मौलवियों का इजारा तोड़ने के उपाय बताएं। बाल-विवाह का विरोध किया तथा विधवा-विवाह का समर्थन। छुआछूत, जाति-प्रथा का जोरदार खंडन किया। लोगों के धार्मिक अंधविश्वासों की कड़ी आलोचना की और स्त्री शिक्षा पर विशेष रूप से जोर दिया। जनवादी संस्कृति के तत्व भारतेंदु को अपने देश से मिले थे।
डॉ.वर्षा कुमारी