वैसे तो नाटक की परंपरा बहुत ही प्राचीन है। नाटक के बारे में कहा जा सकता है कि नाटक जन्म से ही शब्द की कला के साथ-साथ अभिनय की कला भी है। नाटक की अपनी कुछ सीमाएं होती हैं। नाटक के शब्द में नहीं कार्य की योग्यता रंगमंच पर सिद्ध होती है।
नाटक में नाटक की आत्मा की अनुभूति और उनके प्रत्यक्ष दर्शन के हमें रंगमंच का संपूर्ण सत्यभाव चाहिए। रंगमंच एक मानव प्रवृत्ति है- अनिवार्य, आदिम सत्य जिसकी तुलना मानव संस्कृति में उपलब्ध अन्य विभूति नहीं कर सकती। डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल लिखते हैं- “नाट्य कृति और रंगमंच एक-दूसरे के कार्य और कारण हैं। दूसरे स्तर पर एक-दूसरे के पूरक और यहाँ तक कि एक-दूसरे के पर्याय भी हैं।”(समकालीन हिंदी नाट्य परिदृश्य-डॉ. परवीन अख्तर)।
नाट्यकार अपनी रचना विधि में समाज-सापेक्ष कल्पना अपनाता है। यही कारण है कि नाटक और रंगमंच का विकास प्रत्येक देश की सामाजिक संरचना के अनुरूप हुआ करता है। साहित्य की समस्त विधाओं में अभिव्यक्त सामाजिकता में रीति-रिवाज, परंपराएँ, प्रथाएँ, सामाजिक मान्यताएं, संस्कृति, दर्शन, जाति, विवाह, परिवार, समूह-संस्था, समिति, राजनीति तथा अर्थनीति आदि को सम्मिलित किया जाता है। नाटक को पंचम वेद के रूप में प्रतिष्ठित करने के प्रयास के मूल में भी सामाजिक प्रेरणा ही है। नाटक अभिनय के माध्यम से समाज को आनंद प्रदान करता हुआ उनके भावों की तुष्टि करता है।
हिंदी नाटकों के आरंभिक काल में सामाजिक नाटकों में धार्मिक प्रवृत्तियों की प्रधानता थी। इसी कारण नाटकों के माध्यम से धार्मिक भावनाओं का प्रदर्शन होता था। हिंदी के अधिकांश प्राचीन नाटक मूलतः धार्मिक, पौराणिक आख्यानों पर आधारित थे। इसके उदाहरण के तौर पर हम भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटक ‘चंद्रवती’ ‘सत्य हरिशचंद्र’ एवं प्राणचंद चौहान कृत ‘रामायण’ नाटक आदि को देख सकते हैं। प्रसाद युगीन सामाजिक नाटककारों में सुदर्शन, उदयशंकर भट्ट, सेठ गोविंद दास, प्रेमचंद, लक्ष्मीनारायण मिश्र, बद्रीनाथ भट्ट आदि प्रमुख हैं। प्रसादोत्तर काल में इब्सन, बर्नाडशा तथा यूरोप के अन्य यथार्थवादी नाटककारों के प्रभाव से जीवन-मूल्यों के प्रति एक दृष्टि का विकास हुआ जिससे सामाजिक समस्या मूलक नाटकों को गति मिली।
प्रसाद के बाद हिंदी नाटकों में नई चेतना का आविर्भाव अवश्य हुआ परंतु दृश्यतत्व में सन 1960 तक गति नहीं आ सकी थी। स्वतंत्रता के बाद नाट्य मंचन के प्रथम दौर में उपेंद्रनाथ ‘अश्क’, रामकुमार वर्मा, लक्ष्मीनारायण मिश्र आदि के नाटकों के अनेक प्रदर्शन हुए। इसी समय मोहन राकेश और जगदीश चंद्र माथुर के नाटकों के सामाजिक स्वरूप का व्यापक चित्र अंकित हुआ। नाटककारों की दृष्टि प्रमुख रूप से यथार्थवादी रही।
मानव की हृदयगत अभिव्यक्ति के सशक्त और प्रभावपूर्ण साहित्यांगों में नाटक मूर्धन्य स्थान का अधिकारी है। अन्य साहित्यांगों कविता, कहानी, उपन्यास की अपेक्षा नाटक सर्वाधिक प्रभावोत्पादक है, क्योंकि अन्य विधाओं में उल्लेखित दृश्य कंठ तथा कानों तक सीमित रहते हैं, जबकि नाटक में दृश्य आंखों से अभिन्न संबंध स्थापित कर लेते हैं। नाटक को सर्वकला समन्वित साहित्य-विधा माना गया है। वस्तुतः नाटक की महत्ता का मूल कारण उसकी सांद्रता या आपेक्षित घनता है, क्योंकि इसमें एक साथ संगीत, नृत्य और संलाप के साथ आकर्षण दृश्य तथा चित्रात्मकता के होने के कारण यह हमारी अधिकांश ज्ञानेंद्रियों को आकर्षित करने की दक्षता रखता है।
समकालीन हिंदी नाटककारों में लक्ष्मीनारायण लाल ऐसे नाटककार हैं, जिन्होंने सर्वाधिक नाटकों की सर्जना की है। उनके छोटे-छोटे नाटकों को मिलाया जाए तो उनकी संख्या 50 से ऊपर बैठती है जिसमें मिस्टर अभिमन्यु, कलंकी, व्यक्तिगत सवरंग, मादा कैक्टस,दर्पण, एक सत्य हरिश्चंद्र, कर्फ्यू, यक्ष प्रश्न, सूर्य मुख, मोहभंग आदि को देखा जा सकता है। इनके नाटक कहीं जनसंस्कृति से जुड़कर न्याय, समता के प्रश्न उठाते हैं, तो कहीं व्यक्तिगत संबंधों में अहम की भूमिका और उसमें पैदा कशमकश की पड़ताल करते हैं तो कहीं न्यायपालिका पर व्यंग करते हैं। महाभारत की कथाओं तथा प्रसंगों या लोककथाओं का उन्होंने अपने नाटकों में भरपूर इस्तेमाल किया है।
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वर्तमान समय में जहाँ हमारे रीति-रिवाज, मूल्यों एवं कार्य-व्यवहारों में परिवर्तन हो रहा है, वहाँ हमारे नाटक की रचना प्रक्रिया में परिवर्तन परिलक्षित हो रहा है। डॉ. चंद्र के नाटक समकालीन सामाजिक बोध से युक्त जीवन की वास्तविक गहराईयों को स्पष्ट करते हैं। उनकी मान्यता है कि जिन परिस्थितियों से लेखक के अंतराल में प्रतिक्रिया होती है वे ही परिवर्तन साहित्य में स्थान पाते हैं। लेखक के भीतर सामाजिक परिवर्तनों की प्रतिक्रिया जितनी अधिक होगी उतना ही उसका साहित्य जनमानस को आंदोलित करेगा।
स्पष्ट है की लेखक सामाजिक परिवर्तनों से अवश्य प्रभावित होता है तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार सृजन करता है। नाटक रंगमंचीय अभिव्यक्ति जन-जीवन को आकर्षित करने में साहित्य की अन्य विधाओं से अधिक सक्षम होती है।
डॉ.वर्षा कुमारी