शीर्षक- मैं भी नारी
मैं भी नारी हूँ
कोई वस्तु नहीं।
जब चाहा प्यार किया,
जब चाहा नफरत की।
जब चाहा सहारा दिया,
जब चाहा बेसहारा किया।
जब चाहा इज्जत की,
जब चाहा इज्जत लूटी ।
जब चाहा मान सम्मान दिया,
जब चाहा बेइज्जत की।
जब चाहा साथ निभाया,
जब चाहा बीच सफर में छोड़ दिया।
जब चाहा खुशियाँ लुटाई,
जब चाहा खुशियाँ छिनी ।
मैं भी नारी हूँ
कोई वस्तु नहीं।।
शीर्षक- विधवा
जब भी वह उड़ना चाहती
कोई ना कोई मजबूरी उसे रोकना चाहती
जब भी वह कुछ करना चाहती
कोई ना कोई मजबूरी उसे रोकना चाहती
जब भी वह कुछ सीखना चाहती
कोई ना कोई मजबूरी उसे रोकना चाहती
जब भी वह पढ़ना चाहती
कोई ना कोई मजबूरी उसे रोकना चाहती
जब भी वह खुलकर हँसना चाहती
कोई ना कोई मजबूरी उसे रोकना चाहती
जब भी वह कहीं जाना चाहती
कोई ना कोई मजबूरी उसे रोकना चाहती
जब भी वह सपने देखना चाहती
कोई ना कोई मजबूरी उसे रोकना चाहती
जब भी वह कुछ मांगना चाहती
कोई ना कोई मजबूरी उसे रोकना चाहती
जब भी वह रोना चाहती
कोई ना कोई मजबूरी उसे रोकना चाहती
जब भी वह नए कपड़े पहनना चाहती
कोई ना कोई मजबूरी उससे रोकना चाहती
क्योंकि वह एक विधवा थी।।
शीर्षक- अपठनीय ‘स्त्री’
जिसे पढ़ा ना गया अब तक, वह स्त्री है
जिसे समझा ना गया अब तक, वह स्त्री है
जिसे महसूस ना किया गया अब तक, वह स्त्री है
जिसकी इज्ज़त ना की गई, वह स्त्री है
जिसकी इज्जत हर घड़ी तार-तार हुई हो,
वह स्त्री है
जिसे हर समय दासी समझा गया, वह स्त्री है
जिसे दुनिया में ना आने दिया गया, वह स्त्री है
जिसे दहेज की आग में धहकाया गया,
वह स्त्री है
जिसकी कोई कीमत नहीं, वह स्त्री है
जो सिर्फ़ कुर्बानी देने के लिए बनी है,वह स्त्री है
शायद इसीलिए स्त्री को पढ़ा ही नहीं गया।।
डॉ.वर्षा कुमारी