शर्मा जी और उनकी धर्मपत्नी कौशल्या जी ने सोचा कि अब तो बेटे रोहित का विवाह हो ही गया। बहू देख लिए और दादा-दादी भी बन गए। अब गंगा नहा ही ले। क्यों न अब हमलोग तीर्थ करने चले जाए। वैसे भी जिंदगी का क्या है। कब शरीर में जंग लग जाय किसे पता। यही सोचते-सोचते एक दिन शर्मा जी ने अपने बेटे रोहित से कहा कि, “बेटा रोहित, मैं और तुम्हारी माँ, तीर्थ पर जाने का विचार बना रहे हैं। तू हमारी टिकट करा देगा क्या? हमलोगों ने इसी हफ्ते जाने का सोचा है ।”
रोहित पिताजी की बातों को सुन कश्मकश में पड़ गया कि पिताजी को आखिर क्या बोलूँ। रोहित की पत्नी शांति रोहित से कहने लगती है, “माँ-पिताजी को दिखाई नहीं दे रहा है क्या? अभी घर में कितने खर्चे हैं। ऊपर से तीर्थ पर जाने की सोचने लगे।” रोहित भी अपनी सहमति जाहिर करता हुआ कहता है, “वही तो मुझे भी समझ नहीं आ रहा है कि क्या करूँ। शालू का एड़मिशन भी कराना है। सब कुछ एक साथ तो नहीं हो पाएगा न?” इन्ही उधेडबुन में एक दिन रोहित पिताजी से बोलता है कि, “पिताजी अभी तो घर में बहुत खर्चे हैं। शालू का भी स्कूल में इसी महीने एडमिशन कराना है। पिताजी आपलोग बाद में कभी तीर्थ कर लेना। जब मेरे हाथ मे पैसे होंगे तो मैं खुद बोलूंगा आपलोगों को। तब तक के लिए आपलोग मुझसे कुछ ना बोले।”
बेटे की ऐसी बातों से शर्मा जी और कौशल्या जी को बहुत ठेस लगी। उन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे रोहित से बोलकर वो दोनों कोई गुनाह कर दिए हों। शर्मा जी, पत्नी कौशल्या से बोलने लगे, कोई बात नहीं कौशल्या, शायद रोहित के हाथ में अभी सच में पैसे ना हों। उसके पास जब पैसे हो जायँगे तो वह अपने आप ही टिकट करायेगा हमारी। तुम मन छोटा ना करो। तीर्थ पर तो हमें चलना ही है एक दिन।
दो दिन बाद रोहित शर्मा जी और कौशल्या जी के पास मिठाई लेकर आता है और कहता है, “आज मैंने नई मोटरसाइकिल ली है।” शर्मा जी और कौशल्या जी खुशी जाहिर करते हुए बेटा से बोलते हैं, “बहुत अच्छा किया बेटा। कौन सी ली है? कितने की मिली ?” रोहित ने बोला, “बुलेट है पिताजी। लगभग 2 लाख की मिली है।” शर्मा जी रोहित का पीठ थपथपाते हुए बोले, “भगवान करे तेरी सारी इच्छा पूरी हो।” कौशल्या जी अपने पति से बोलती हैं कि अभी दो दिन पहले तो रोहित के पास पैसे नहीं थे। इतना महँगा गाड़ी…….?? शर्मा जी पत्नी से बोलते हैं, “छोड़ो भी, तुम ऐसा क्यों सोचती हो? तुम्हें तो खुश होना चाहिए। बेटे ने नई मोटरसाइकिल खरीदी है।”
धीरे-धीरे समय व्यतीत होता जा रहा था। कौशल्या जी की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वो सोचती हैं कि देखते-देखते 3 महीने हो गए। अभी तक रोहित की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला। कुछ दिन बाद रोहित माँ और पिताजी से बोलता है, “आपलोग तैयार हो जाइए मंदिर चलना है।” शर्मा जी ने बेटे रोहित से पूछा कि, “क्यों बेटा, आज कुछ है क्या?” रोहित ने कहा, “वो तो मंदिर जा कर ही पता चलेगा। बस चलिए आप लोग। तैयार हो जाइए जल्दी से। मैंने आटो बुला दिया है। आप और माँ आटो से। मैं, शांति और शालू को मोटरसाइकिल से लेकर जा रहा हूँ।” मंदिर पहुँचते ही माँ-पिताजी को पता चला कि रोहित ने नई कार खरीदी है। उसी की आज पूजा है। रोहित खुशी से, “माँ-पिताजी आज मैंने कार खरीदी है। कैसी है?” शर्मा जी और कौशल्या जी ने कहा, “कार तो बहुत अच्छी है बेटा। चल बहुत अच्छा किया तूने। अब तो सभी लोग इकट्ठे बाहर जा सकेंगे। हमलोगों को अब आटो का इंतेजार नहीं करना पड़ेगा।” कुछ दिनों बाद……. कौशल्या जी अपने पति से बोलती हैं कि, “पता नहीं रोहित हमें कब भेजेगा तीर्थ पर। आप एक बार रोहित से पूछ कर तो देखिए ना। शायद भूल गया हो।” ठीक है पूछ लूँगा मैं, शर्मा जी ने कहा। मौका देखकर शर्मा जी, “बेटा क्या सोचा तीर्थ पर जाने के बारे में?”
अभी सोचता हूँ पिताजी। देखता हूँ कितना खर्च आएगा, आपलोगों के जाने-आने में और वहाँ रहने में।” रोहित के तरफ से फिर से निराशावादी ही उत्तर मिला। रोहित को देखने और सोचने में फिर से 2 महीने बीत गए। पर अभी तक कोई जवाब नहीं मिला उसकी के तरफ से। कौशल्या जी पति से, “अब आप ही कुछ करिए। मेरी जिंदगी का अब कोई ठिकाना नहीं है। वैसे भी बीमारी तो हाथ धो कर मेरे पीछे पड़ी है। पता नहीं कब बुलावा………..।”
पत्नी की ऐसी बाते सुनकर शर्मा जी के ऊपर जैसे पहाड़ गिर गया हो। बोझिल मन से सोचते हुए…..अब हमें ही कुछ करना पड़ेगा कौशल्या जी के लिए।
“आप आजकल प्रातःकाल दो, तीन घंटे कहाँ चले जाते हैं? माँ भी बोल रही थी आपके बारे में।” रोहित पिताजी से पुछता है। शर्मा जी अरे! तुमलोग भी न। अब मेरी उम्र हो गई है। खुद पर ध्यान तो देना पड़ेगा न। नहीं तो बुढ़ापे में हजार बीमारियाँ घर करेंगी। फिर तुम्ही लोगों को मेरी सेवा करनी पड़ जाएगी। सोचा कि अब प्रतिदिन सुबह कुछ घंटे टहला करूँ। वैसे भी घर में तो बैठा ही रहता हूँ न। शर्मा जी का ये क्रम तीन महीने तक चलता रहा फिर एक दिन शर्माजी। “रोहित बेटा, ये ले कुछ पैसे और तू हमारी कल की टिकट करा दे। ये माह भी अच्छा चल रहा है। इसमें तीर्थ करने से बहुत ही पुण्य मिलता है। एक एफ.डी था मेरा। उसे ही निकाल कर लाया हूँ। तुम्हारे पास अभी पैसे बच नही रहें हैं तो मैंने सोचा……। तुम्हारी माँ से अब और इन्तेजार नहीं हो रहा था बेटा। रोहित पैसे लेते हुए कहा, “ठीक है पिताजी। मैं आज ही टिकट करा दे रहा हूँ । आपलोग बस तैयारी पूरी कर लीजिए अपनी।” अगले दिन रोहित, “पिताजी निकलने का समय हो गया। जल्दी करिये आपलोग।”
कौशल्या जी को एफ.डी की जानकारी नहीं थी। वो शर्मा जी से पुछती हैं की आपने एफ.डी कब जमा की थी? और अगर जमा ही की थी तो क्या जरूरत थी आपको एफ.डी के पैसे निकालने की? रोहित के पास जब होते पैसे तो वो स्वयं ही हमारी टिकट करा कर भेजता। आपने सही नहीं किया जी। अरे! बुढ़ापे मे हमें अपना हाथ खाली नहीं करना चाहिए था। कल के दिन अगर हमें कुछ पैसों की जरूरत पड़ी तो कौन देगा। वैसे ही रोहित ने हर महीने जीतने पैसे हमलोगों को देता उसमें तो हमारा गुजारा चल नहीं पाता है। जब दुबारा मांगते हो तो हाथ ही खड़े कर देता है। शर्मा जी और कौशल्या जी के जाने के तीन दिन बाद एक अपरिचित आदमी शर्मा जी….शर्मा जी! पुकारता हुआ आता है। रोहित को देख कर उससे पुछता है, “शर्मा जी यहीं रहते हैं क्या? वो लंबे-लंबे से हैं।” रोहित कहता है जी हाँ। पर आप कौन? वो तो घर पर नहीं हैं। कुछ काम था क्या आपको? “जी मेरा नाम हरि तिवारी है। शर्मा जी प्रत्येक सुबह हमारे मोहल्ले में सबकी कार की साफाई करने आते हैं। वो तीन दिन से आए नहीं गाड़ी साफ करने। सोचा हाल-चाल पूछ लूँ। बुजुर्ग आदमी हैं। कहीं तबीयत तो नहीं खराब हो गई उनकी। ठीक हैं न? उस अपरिचित आदमी की बातें सुनकर रोहित को यकीन ही नहीं हुआ कि पिताजी ने मुझे जो पैसे दिये थे वो…..?? मन-ही-मन पश्चाताप की आग में जलने लगा। पिताजी के इंतेजार में पलकें बिछाए बैठ गया। शर्मा जी और कौशल्या जी के वापस आने तक सब कुछ बदल चुका था। पर शर्मा जी वहीं के वहीं थे। एक लंबी सांस लेते हुए “बहू मेरा नाश्ता लगा दो, मुझे काम पर जाना है।” शर्मा जी मन में सोचते हैं, “मैं तो सोचा था कि तीर्थ से वापस आने के बाद मैं काम छोड़ दूँगा। पर अपनी कमाई के पैसों से जीने का मजा ही अलग है।” एक बुझी सी मुस्कान लिए, अच्छा तो कौशल्या जी मैं चलता हूँ अपनी मंजिल पर।