कविता
शीर्षक- चाहत एक ‘स्त्री’ की
एक स्त्री आखिर चाहती क्या है
बेटी बन कर माँ-बाप का प्यार
पत्नी बनकर पति का प्यार
बहू बनकर सास-ससुर का प्यार
माँ बनकर बच्चों का प्यार
क्यों नहीं बेटी को बढ़ाते हो
क्यों नहीं एक पत्नी का हर मोड़ पर साथ निभाते हो
क्यों नहीं बहू को बेटी का दर्जा देते हो
क्यों नहीं माँ की सेवा करते हो
क्यों नहीं एक स्त्री की इज्ज़त करते हो
क्यों नहीं उसकी मान-मर्यादा का ख्याल रखते हो
एक स्त्री आखिर यही तो चाहती है।।
शीर्षक- गरीबी से सीख
अगर कुछ सीखना है तो गरीबों से सिखों
उनकी दयनीय स्थिति को महसूस करो
लाखो कमा कर भी हम खुश नहीं रह पाते
वो हजार में ही खुशी से परिवार चलाते है
हम पार्टियों में हज़ारों लुटाते हैं
वो सौ में ही बच्चे का जन्मदिन मनाते हैं
कोई सुखी रोटी भी दे दे तो वो खुशी से स्वीकार करते हैं
पर हमारा तो मेवा से भी पेट नहीं भरता है
उन्हें तो ना ही बंगला चाहिए, ना महल
बस धरती माँ का एक कोना चाहिए
उन्हें तो रोशनी के लिए बल्ब नहीं चाहिए
चाँदनी रात ही काफी है उनके लिए
उनके पास बैंक बैलेंस नहीं होता
उनके लिए मिट्टी का एक छोटा सा गुल्लक ही बैंक होता है
अमीर के नसीब में चैन की नींद नहीं होती
पर गरीब सुकून भरी नींद सोते हैं
उन्हें अपनी संपत्ति की चिंता नहीं होती
दो जोड़ी कपड़े और कुछ बर्तन तथा मिट्टी
का घर ही उनकी संपत्ति होती है, इसीलिए
अगर कुछ सीखना है तो गरीबों से सिखों।। इसे भी पढ़ें
डॉ.वर्षा कुमारी