साहित्य के क्षेत्र में एक उपन्यासकार, कहानीकार, संपादक और पत्रकार के रूप में प्रसिद्ध रहे आचार्य शिवपूजन सहाय को हिंदी नवजागरण का अग्रदूत कहा जाता है। हिंदी नवजागरण के जिस चरण को द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है, शिवपूजन सहाय की हिंदी-सेवा का प्रारंभ लगभग उसी के सीमांत के आसपास होता है। इन्होंने अपने आत्मकथा में लिखा है कि ‘राष्ट्रीय नवजागरण की चेतना का प्रस्फुटित उनमें तभी हो चुका था जब 1905 में बंग-भंग का स्वदेशी आंदोलन प्रारंभ हुआ था। राष्ट्रीय चेतना के आंदोलन-प्रसारण में हिंदी नवजागरण की व्यापक भूमिका का निर्वहन जिस पत्रकारिता के द्वारा हो रहा था, शिवपूजन सहाय को सबसे अधिक उसी ने आकृष्ट किया ।
शिवपूजन सहाय की साहित्य-साधना का प्रारंभ ललित, भावात्मक एवं विचारात्मक निबंधों एवं कुछ ऐसी कहानियों से हुआ था जिनमें यथार्थ जीवनानुभवों को बहुधा काव्य और निबंध के गुणों में समन्वित करते हुए रचा गया था ।
इन्होंने सामाजिक जीवन का शुभारंभ हिंदी शिक्षक के रूप में किया और साहित्य के क्षेत्र में ये पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से ही प्रवेश किए। सहाय जी की सेवाएं हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण है। ‘मारवाड़ी सुधार’ एवं ‘आदर्श’ उनके लिए संपादन की वह पहली सीढ़ी थे जिस पर मजबूत कदम रखते हुए वे उत्कृष्ट एवं राष्ट्रवादी पत्रकारिता के उस मुकाम पर पहुँचे जहाँ ‘मतवाला’ जैसे अप्रतिम राजनीतिक-साहित्यिक साप्ताहिक पत्र का प्रादुर्भाव हुआ। 1923 ई. में कोलकाता के ‘मतवाला मंडल’ के सदस्य हुए और कुछ समय के लिए आदर्श, उपन्यास, तरंग, समन्वय पत्रों का भी संपादन कार्य किया। 1930 ई. में सुल्तानगंज भागलपुर से प्रकाशित होने वाली ‘गंगा’ नामक मासिक पत्रिका के संपादक मंडल के सदस्य भी हुए। काशी में रहकर इन्होंने साहित्यिक पाक्षिक ‘जागरण’ का भी संपादन किया। 1934 ई. में लहेरियासराय (दरभंगा) जाकर मासिक पत्र ‘बालक’ का संपादन किया।
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पत्रकार रूप
हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा आचार्य शिवपूजन सहाय 1910 से से 1960 ई. तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, जैसे ‘आज’, ‘सन्मार्ग’, ‘आर्यावर्त’, ‘हिमालय’ आदि में सारगर्भित लेख लिखते रहें। अपने एक लेख ‘हिंदी के दैनिक पत्र’ में लिखा है कि ‘लोग दैनिक पत्रों का साहित्यिक महत्व नहीं समझते, बल्कि वे उन्हें राजनीतिक जागरण का साधन मात्र समझते हैं।’ इनका यह भी कहना था कि ‘भारत की साधारण जनता तक पहुँचने के लिए दैनिक पत्र ही सर्वोत्तम साधन है। पत्रों के माध्यम से भाषा और साहित्य का संदेश भी दैनिक पत्रों द्वारा आसानी से जनता तक पहुँचा सकते हैं।’ आजादी के बाद सहाय जी ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद’ के संचालन तथा ‘बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की ओर से प्रकाशित ‘साहित्य’ नामक शोध समीक्षा प्रधान त्रैमासिक पत्र के संपादक रहे।
सहाय जी ने विभिन्न विषयों से संबंधित पुस्तकें लिखी तथा उनकी विधाएँ भी अलग-अलग हैं। उनकी लिखी एक पुस्तक है ‘बिहार का विहार’ जो शिवपूजन रचनावली के पहले खंड में प्रकाशित है। सहाय जी ने इसमें बिहार के सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृति आदि विविध पक्षों का ऐतिहासिक उत्खनन किया है, वह अद्भुत है। सबसे पहले इसमें इन्होंने बिहार नाम पड़ने का कारण को स्पष्ट किया है कि बौद्धों के बहुत से मठ होने के कारण इसका नाम ‘बिहार’ पड़ा। क्योंकि संस्कृत में ‘विहार’ शब्द का अर्थ ‘मठ’ है। आज भी बिहार नामक प्राचीन नगर में अनेक बौद्ध मठों के खंडहर दीख पढ़ते हैं। कहते हैं कि “जिस प्रदेश में सरयू गंडक, शोणभद्र, कर्मनाशा फल्गु, कोशी आदि प्रसिद्ध नदियाँ गंगा से मिली है, जिस प्रदेश की पूर्वी सीमा पर पूरब की ओर से बहने वाली गंगा का मुँह दक्षिण-दिशा में फेर देने वाली ‘राजमहल पहाडी’ विराजमान है, जिस प्रदेश के बीचोबीच बहने वाली गंगा/उत्तर- भारत को ‘मिथिला’ और दक्षिण-भाग को ‘मगध’ नाम से बाँट देती है, जहाँ जनकपुर, गया, वैधनाथ, हरिहर क्षेत्र आदि भारत-प्रसिद्ध हिंदू तीर्थ है, जहाँ पाटलिपुत्र(पटना), मुद्गलपुरम(मुंगेर), व्याघ्रसर(बक्सर), सहस्रराम(सासाराम), बिहार शरीफ, भोजपुर चंपानगर (भागलपुर के निकट), भगदतपुर(भागलपुर), राजगृह, वैशाली (हाजीपुर के निकट) नालंदा (बिहार शरीफ) आदि प्राचीन गौरवशाली ऐतिहासिक नगर जहाँ-तहाँ, जैसी-तैसी अवस्था में सुशोभित है जहाँ प्राचीन भूतत्व-विधा का सुप्रसिद्ध विद्यापीठ ‘राजमहल की पहाड़ी’, ‘प्राचीन बौद्धकाल’ और मौर्यसाम्राज्य काल के अनेक उत्कृष्ट चिन्हों से गौरवान्वित ‘राजगिर’ (राजगृह) और ‘बराबर’ पहाड़ रोहिताश्वगढ़ और शेरगढ़ के सुदृढ़ दुर्गों (मजबूत किलों) से विभूषित, ‘कैमूर की पहाड़ी’ आदि प्रधान एवं प्रसिद्ध पहाड़-पहाड़ियाँ विद्यमान है, जहाँ दो-दो, ढाई-ढाई हजार वर्ष की पुरानी चीजों (मूर्तियों, सिक्कों स्तंभो, शिलालेखों, बर्तनों आदि) को अपने अतलगर्भ से पैदा करने वाले कुम्हार बड़गांव आदि पुराने खंडहर मौजूद हैं, उसी प्रदेश का नाम बिहार है।”
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बिहार के प्राचीन गौरव की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए एक विद्वान ने लिखा है- भारत में सबसे पहले सभ्यता तथा विद्या का प्रचार बिहार में ही हुआ। वेदांत शिक्षा में अत्यंत प्राचीन काल से बिहार अग्रणी है। बिहार से ही ‘नदियाँ’ में न्याय गया है। ‘न्याय दर्शन’ के रचयिता गौतम तथा ‘सांख्यदर्शन’ के जन्मदाता कपिलमुनि को कौन नहीं जानता? जिस मिथिला ने ऐसे-ऐसे महानुभावों को उत्पन्न किया, उसकी महिमा अवर्णनीय है। ‘व्याकरण’ के सर्वमान्य आचार्य पाणिनी पटना में ही पढ़ते थे। वार्तिककार कात्यायन अथवा वररुचि ‘मनेर’ (पटना जिला) के रहने वाले थे। ज्योतिष के आचार्य आर्यभट्ट भी पटना के ही रहने वाले थे। पतिव्रता- शिरोमणि श्रीमती महारानी सीता जी बिहार में ही यज्ञभूमि से प्रकट हुई थी। महर्षि विश्वामित्र, गौतम, च्यवन और महाकवि बाणभट्ट की साधना-भूमि बिहार ही था। सिक्खों के दसवें गुरु श्री गुरुगोविंद सिंह की जन्मभूमि पटना ही है। पटना-सिटी का हर मंदिर इसी कारण सिक्खों का भारत प्रसिद्ध तीर्थ है। प्राचीन समय का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय नालंदा का ही था, जो पटना जिले में अवस्थित है।
इसमें दस हजार विद्यार्थी और 1400 अध्यापक थे। सभी को भोजन वस्त्र और पुस्तकें दी जाती थी। इतना बड़ा कॉलेज दुनिया भर में कहीं नहीं था। इस विश्वविद्यालय में एक पुस्तकालय था। जिसकी पुस्तकें बख्तियार खिजती ने जला डाली। पुस्तकें कई महीनों तक लगातार दिन-रात जलती रही।
इसी प्रकार बिहार की इस पुण्यभूमि में अनेक बड़े-बड़े धर्मप्रवर्तक, धर्माचार्य, धर्म-संरक्षक, धर्मनिष्ठ, महात्मा, महातपा महर्षि, दिग्विजय वीर, विक्रम-वैभवशाली सम्राट, ख्यातनामा कवि-कोविद, विख्यात वैयाकरण, विदुषी आर्य ललना, सकल- शास्त्र-विशारद पंडित, सिद्ध योगी, दानवीर, कर्मवीर और धर्मधुरंधर पुरुष हो चुके हैं। इन्हीं कारणों से बिहार ‘यावच्च्द्रदिवाकरौ’ धन्य बना रहेगा और भारत के अन्य प्रांतों से किसी तरह का इसका गौरव कम नहीं हो सकता।
कहानियाँ
‘विभूति’ में इनकी कहानियां संकलित है। 1926 ई. में लिखित इनका एक उपन्यास है ‘देहाती दुनिया’ जो प्रयोगात्मक चरित्र प्रधान औपन्यासिक कृति है। इसकी पहली पांडुलिपि लखनऊ के हिंदू-मुस्लिम दंगे में नष्ट हो गई थी जिसका शिवपूजन सहाय को बहुत दुख हुआ। उन्होंने इस पुस्तक को दोबारा लिखकर प्रकाशित करवाया। मगर उनका कहना था कि पहली बार लिखी गई चीजों की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। ‘अन्नपूर्णा के मंदिर में’ और ‘ग्राम सुधार’ नामक इनकी दो पुस्तकें हैं जो ग्रामोद्धार संबंधी लेखों के संग्रह है। ‘दो घड़ी’ एक हास्यरसात्मक कृति है। ‘माँ के सपूत’ बालोंपयोगी हैं तथा ‘अर्जुन’ और ‘भीष्म’ दो पुस्तकें महाभारत के दो पात्रों की जीवनी के रूप में है।
इनकी भाषा बहुत ही सरल और सहज है। हिंदी के साथ-साथ उन्होंने उर्दू के शब्दों का प्रयोग भी खूब किया है और अलंकार प्रधान अनुप्रास बहुल भाषा का भी व्यवहार किया है। सहाय जी ने अपना पूरा जीवन हिंदी की सेवा में लगाया है। जिस हिंदी भाषी क्षेत्र में उन्होंने जन्म लिया उसी की सेवा मरते दम तक करते रहे। यही कारण है कि ये कभी बिहार से अलग नहीं हुए और जो कुछ भी लिखा अपने जन्मभूमि पर ही रह कर लिखा। भोजपुर जिला को अपने अंदर हमेशा महसूस किया। अपनी जन्मभूमि के बारे में लिखते हैं “मैं ऐसी ठेठ देहात का रहने वाला हूँ, जहाँ इस युग की नई सभ्यता का बहुत ही धुंधला प्रकाश पहुँचा है। वहाँ केवल दो ही चीजें प्रत्यक्ष देखने में आती हैं- अज्ञानता का घोर अंधकार और दरिद्रता का तांडव नृत्य। इसीलिए इनकी अधिकांश रचनाओं में हमें जो भाषा, शब्द, वाक्य देखने को मिलती है वह ग्रामीण क्षेत्र की ही लगती है। इनकी कहानियों की भाषा या उपन्यासों की भाषा एकदम ठेठ देहाती गँवारू, बोलचाल की भाषा है। इन्होंने अपनी रचनाओं में गालियों का प्रयोग भी निठल्ले से किया है। इनकी कहानियाँ तथा उपन्यास सभी ग्रामीण जीवन का दस्तावेज प्रस्तुत करती है। कहानियों के विषय में इनका कहना है कि “मेरा जीवन बचपन से आज तक कटु-मधु कहानियों की एक श्रृंखला है। मैं जब अपने जीवन पर विश्लेषणात्मक दृष्टि डालता हूँ तब कोई विशेष विलक्षणता तो नहीं दीख पड़ती, क्योंकि जैसे सभी मनुष्य के जीवन क्षेत्र में हर्ष-विषाद की स्रोतस्विनी प्रवाहित होती रहती है, वैसे ही मेरे जीवन क्षेत्र में थी।” गहरी सूझ-बूझ का लेखक चाहे स्टेशन के प्लेटफार्म पर रहे या अदालत के इजलास पर कहानी का अंकुर तो वह देख ही लेगा।
‘मुंडमाल’ (1916) और ‘कहानी का प्लॉट’ (1928) सहाय जी की दो सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वाधिक पठित-चर्चित कहानियों के रूप में सुख्यात हैं। दोनों कहानियाँ कई अर्थों में एक दूसरे का विलोम प्रतीत होती है- ‘मुंडमाल’ प्रारंभिक काल की रचना है, जिसका विषय और कथानक इतिहास से लिए गए हैं। इसके विपरीत ‘कहानी का प्लॉट’ इनकी अंतिम मौलिक कहानी है, जिसका विषय और कथानक सामाजिक यथार्थ से उपजा है। इसमें सामाजिक यथार्थ के एक उदाहरण को देख सकते हैं जहाँ शिवपूजन सहाय ने एक दरोगा का वर्णन किया है- “दरोगा जी ने जो कुछ कमाया अपनी जिंदगी में ही फूँक-ताप डाला। उनके मरने के बाद सिर्फ उनकी एक घोड़ी बची थी जो थी तो महज सात रुपए की, मगर कान काटती थी तुर्की थोड़े के- कमबख्त बारूद की पुड़िया थी। बड़े-बड़े अंग्रेज-अफसर उस पर दाँत गड़ाए रह गए, मगर दरोगाजी ने सबको निबुआ-नोन चटा दिया। इसी घोड़ी की बदौलत उनकी तरक्की रुकी रह गई, लेकिन आखिरी दम तक वे अफसरों के घपले में न आए न आए। हर तरह के काबिल, मेहनती, ईमानदार,चालाक दिलेर और मुस्तैद आदमी होते हुये भी दारोगा के दारोगा ही रह गए सिर्फ घोड़ी की मुहब्बत से।”
उपन्यास
आत्मचरित शैली में कथित उपन्यास ‘देहाती दुनिया’ का परिवेश भोजपुर अंचल का है, जहाँ लेखक वाचक का जन्म हुआ है। किंतु हिंदी उपन्यास में आंचलिकता का सूत्रपात करने वाली, प्रवर्तक कृति के रूप में लगभग स्वीकृत यह उपन्यास एक अंचल विशेष (भोजपुर अंचल) का ही नहीं, वरन बीसवीं सदी के प्रारंभ में भारत के किसी भी गाँव का मूल चित्र अंकित करता हुआ प्रतीत होता है। इसके कथानक के हर टुकड़े में और प्रायः हर चरित्र में, भारतीय ग्रामीण समाज की मूलाकृति की झलक मिलती है, इस अर्थ में इस उपन्यास में हमें आंचलिकता और सार्वदेशिकता का अद्भुत संयोग दिखाई देता है। ‘देहाती दुनिया’ उपन्यास इन्होंने अपने देहाती मित्रों के लिए लिखी है। इन्होंने स्वयं इस उपन्यास के बारे में लिखा है कि ‘भाषा का प्रवाह मैंने ठीक वैसा ही रखा है, जैसा ठेठ देहातियों के मुख से सुना है।
निबंधों की दुनिया
अगर सहाय जी के निबंधों पर बात करें तो इनके निबंध विशेष रूप से विचारात्मक हैं। अपने विचारों को प्रेषणीयता के साथ प्रस्तुत करना इनके निबंधों की प्रमुख विशेषता है। इनके दो प्रकार के निबंध हैं- एक साहित्यिक निबंध और दूसरा ग्रामीण जीवन से संबंधित निबंध। ‘ग्राम सुधार’ में इनके कई निबंध है जिसमें गाँवों की महत्ता को इन्होंने रेखांकित किया है और लिखा है कि “भारत गाँवो का देश कहलाता है। गाँव ही हमारे राष्ट्र की रीढ़ है। वही हमारे अन्नदाता हैं। किसान और मजदूर वहीं रहते हैं। हमारे पशुधन का खजाना भी वहीं है। हमारा अन्न और दूध-घी का भंडार तो वह है ही, कपड़े बनाने के सब सामान भी वहीं से पाते हैं। सुख के सारे सामान हमें वहीं से मिलते हैं। शहरों के और बड़े-बड़े कारखाने में हमारे काम की जितनी चीजें तैयार होती है सबके लिए कच्चा माल वहीं से आता है। आज वे गाँव और किसान- मजदूर सर्वथा उपेक्षित और अभिशप्त है।” गाँवों के संदर्भ में सहाय जी ने एक टिप्पणी की है- यदि धनाढ्य और शिक्षित नागरिक कभी गाँवों में आकर दिवाली का दृश्य देख जाते तो उन्हें पता लग जाता कि असंख्य झोपड़ियों के चिराग बुझा कर किस प्रकार महलों के चिराग हंस रहे हैं। गाँवों में आकर कोई सहसा उस दयनीय दरिद्रता के दर्शन नहीं पा सकता है जहाँ मूक जनों के घर में सांसत की चक्की चलाती रहती है। गाँवों में आने पर कुछ ऊँचे उजले घर भरमा सकते हैं। अगर ग्राम की वास्तविक स्थिति की तह तक पहुँचने की इच्छा हो तो कुछ दिन वहाँ पड़ाव डालने पर पता चलेगा कि हमारे उपेक्षित गाँवों की कैसी कारुणिक दशा है? इनके ‘ग्राम सुधार’ संबंधित निबंधो पर दृष्टि डालते हुए कहा जा सकता है कि शिवपूजन सहाय ने गाँवों की आत्मा के ह्रदय में प्रवेश कर न केवल उसकी यातना और वेदना का अनुभव किया बल्कि उसके कारणों की तटस्थ पड़ताल की है और हमें मानवीय विकास के वास्तविक पथ पर चलने के लिए प्रेरित भी किया है। अगर इनके साहित्यिक निबंधों पर बात करें तो वह है ‘समय का मूल्य’। इसमें उन्होंने लिखा है कि “समय अथवा जीवन का मूल्य समझने वाले महात्माओं ने चिताया है कि यदि मानव-जन्म सफल करना हो, इस नर-देह को धन्य बनाना हो, तो समय का सदुपयोग करो, ईश्वर की दी हुई अमूल्य संपत्ति को फजूल बर्बाद न करो, बड़े सौभाग्य से समय मिलता है, उसे ठुकराने पर तुम भी गली के ठीकरे ही रह जाओगे।” समय का ही दूसरा नाम जीवन है। इस संसार में जो व्यक्ति समय के मूल्य को नहीं समझता है, समझ लो कि वह अपने जीवन के मूल्य को भी नहीं समझता। जीवन की सार्थकता इसी में है कि एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट ना किया जाए। इनका अगला निबंध है ‘हिंदी साहित्यकारों के बलिदान’ इसमें शिवपूजन सहाय का कहना है कि अपना संपूर्ण जीवन विसर्जन कर देना ही बलिदान देना नहीं है। लोक सेवा अथवा लोकोपकार में अहर्निश तत्पर रह कर जो अपने जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग लोक-मंगल के लिए करता है और इस प्रकार अपने शरीर के रक्त का एक-एक बूँद जनता जनार्दन को सहर्ष अर्पित कर देता है वह भी बलिदानी वीर ही है। वह चाहे युद्धवीर हो, धर्मवीर हो या कर्मवीर। इसमें उन्होंने हिंदी साहित्यकारों के बलिदान को स्पष्ट किया है कि किस प्रकार कई साहित्यकार हिंदी की सेवा में अपना संपूर्ण जीवन न्योक्षावर कर दिया है जैसे, गोस्वामी तुलसीदास, भारतेंदु हरिश्चंद्र, पंडित अमृतलाल चक्रवर्ती, त्यागमूर्ति पंडित, माधव राव सप्रे, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, निराला, रामचंद्र शुक्ल, लाला भगवानदीन, रामनरेश त्रिपाठी, महाकवि हरिऔध।
इसी प्रकार ‘सत्संगति’ निबंध में सत्संगति को महत्व दिया है। सत्संगति के कारण मनुष्य अच्छा और बुरा बन जाता है। ‘सत्संग का केवल यही भाव नहीं है कि संतों के पास रहकर ही उनसे ज्ञान सीखा जाए। संत महात्माओं के बनाए हुए ग्रंथों के पढ़ने और उनके शुभ विचारों तथा सिद्धांतों के मनन करते रहने से भी सत्संगति का फल प्राप्त होता है।’ अगला निबंध है ‘हिंदी भाषा और साहित्य’ इस निबंध में इन्होंने हिंदी भाषा की महत्ता पर बल दिया है। सहाय जी का मानना है कि हिंदी सबसे अच्छी और सरल भाषा है। इस भाषा को अनपढ़ और पढ़े-लिखे आसानी से समझ सकते हैं। यह भाषा लचीली होती है जब जिस रूप में चाहे ढ़ालना ढाल सकते हैं। इनका कहना है कि भारतवर्ष में केवल हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जिसकी आवाज हिमालय के गौरीशंकर शिखर से कन्याकुमारी तक काफी प्रभाव के साथ गूँज सकती है-अटक से कटक, तक छाई रह सकती है।
सहाय जी ने संस्मरण विद्या पर भी अपनी कलम चलाई है। इनका सम्पूर्ण संस्मरण साहित्य दो संग्रहो ‘मेरा जीवन’ और ‘स्मृतिशेष’ में उपलब्ध है। इनकी संस्मरण साहित्य का जीवंत इतिहास अपनी पूरी विविधता एवं विपुलता में संचित है। भारतेंदु युग से छायावादोत्तर युग तक के साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश का एक मनोहारी चलचित्र संस्मरणों में देखा जा सकता है। इनका संस्मरण-साहित्य इनके रचना कर्म का अत्यंत विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण पक्ष प्रस्तुत करता है।
संस्मरण साहित्य
शिवपूजन सहाय का एक संस्मरण है ‘दीनबंधु निराला’। इस संस्मरण में शिवपूजन सहाय ने निराला की पूरे व्यक्तित्व को उजागर किया है। दीनदुखियों की सेवा करते-करते वह स्वयं ही दीनबंधु बन गए हैं। इसी प्रकार अपने दूसरे संस्मरण ‘महाकवि जयशंकर प्रसाद’ में भी जयशंकर प्रसाद को हिंदी में अपना अमूल्य योगदान देने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण माना है।उनका कहना है कि “हिंदी को ‘प्रसाद’ जी कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध आदि के रूप में जो निधि दे गए उसका मूल्यांकन करके आज गौरव का अनुभव किया जा रहा है। जगत की यही परंपरागत रीति जान पड़ती है कि वह युग की विभूति को उसके विलीन हो जाने के बाद ही पहचानता है।”
इनका डायरी साहित्य हिंदी साहित्य को संभवतः उनका सर्वाधिक मूल्यवान प्रतिदान है। डायरी- लेखन उनकी पूजा प्रार्थना की तरह उनके दैनिक जीवन का अभिन्न अंग था। वे दिन-भर की घटनाओं अथवा तज्जन्य विचारों को डायरी के छोटे पृष्ठों में ही सीमित करते हुए, अपने एकांत क्षणों में, सच्चाई की चलनी में छान कर लिखते थे। पृष्ठ के आकार की सीमा में पूरी तरह बंधकर डायरी लिखने का यह संयम उनके डायरी- लेखन को जो खास रचाव-कसाव प्रदान करता है, वह निश्चय ही अतिविशिष्ट है। उनकी अनेक डायरियों में केवल विचार, अथवा नैतिक, आध्यात्मिक, साहित्यिक, सामाजिक और बहुधा राजनीतिक विषयों पर भी सुचिंतित मंतव्य अंकित है। वस्तुतः शिवपूजन सहाय की गद्य-शैली की पूरी गहराई- गागर में सागर वाली सम्प्रेषणीयता एवं ऊर्जस्विता- का एक विस्मयकारी साक्षात्कार उनकी डायरियों में मिलता है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि शिवपूजन सहाय एक साहित्यकार के रूप में नवजागरण चेतना की वह दिव्यमान नक्षत्र हैं जिनके कारण साहित्य आज फूला-फला और समृद्ध दिखाई देता है। सहाय जी ने हिंदी भाषा को जो गति और प्रवाह दिया वह इतिहास में सदा अक्षुण्य रहेगा।
डॉ.वर्षा कुमारी