हिंदी पत्रकारिता का इतिहास भारतीय राष्ट्रीयता का इतिहास है। पत्रकारिता आधुनिकता की एक विशिष्ट उपलब्धि है। भारत का स्वाधीनता आंदोलन और हिंदी पत्रकारिता दोनों में अन्योन्याश्रय संबंध है। इन दोनों का संबंध भारतीय नवजागरण से है। हिंदी पत्रकारिता के आदि उन्नायक जातीय चेतना, युगबोध और अपने दायित्व के प्रति पूर्ण सचेत थे। अपने मुखर राष्ट्रीय स्तर के कारण उन्हें विदेशी सरकार की दमन नीति का शिकार होना पड़ा और उसके नृशंस व्यवहार की यातना झेलनी पड़ी। पत्रों के लिए समय-समय पर जमानत जमा करने के साथ ही संपादकों को जेल यातनाएं भी भुगतनी पड़ी। भारतीय जन मानस को राष्ट्रीयता का शुभ संदेश देने के लिए हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने पहले पत्र-पत्रिकाओं द्वारा नवजागरण की दुंदुभी बजाई।
आश्चर्य की बात है कि जिस हिंदी के नाम पर बंगाली भद्र लोग नाक भौं सिकोड़ता है उस हिंदी को सर्वप्रथम मान्यता कोलकाता में ही मिली। हिंदी का पहला अखबार ‘उदंत मार्तंड’ 30 मई, 1826 ईसवी को कोलकाता से ही प्रकाशित हुआ।हिंदी का दूसरा अखबार भी 10 मई, 1829 को कोलकाता से ही प्रकाशित हुआ और दूसरे पत्र का नाम ‘बंगदूत’ था और इसके संपादक बंगला नवजागरण के अग्रदूत राजा राम मोहन राय थे। इन्होंने ‘बंगदूत’ के माध्यम से लोगों को बहुत बड़ा संदेश दिया कि पूरे देश को लेकर चलने के लिए हिंदी की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
इसके बाद केशवचंद सेन ने ‘सुलभ समाचार’ के जरिए हिंदी के महत्व को रेखांकित किया था- “यदि भारतवर्ष के एक हुए बिना भारत में एकता नहीं हो सकती तो उसका उपाय क्या है? उपाय है सारे भारत में एक ही भाषा का व्यवहार। अभी जितनी भाषाएं भारत में प्रचलित है उनमें हिंदी भाषा लगभग सभी जगह प्रचलित है। इसी भाषा को अगर भारतवर्ष की मातृभाषा बनाया जाए तो यह काम सहज ही और शीघ्र ही हो सकता है।”
अगर देखा जाए तो पत्रकारिता का जन्म आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा और आधुनिकी मुद्रण प्रौद्योगिकी की उपज है। नवजागरण के अग्रदूतों ने इस विधा का उपयोग समाज की मुक्ति और अंततः स्वाधीनता आंदोलन में कर लिया। ‘उदंड मार्तंड’ के बाद कोलकाता से ही जो अन्य पत्र प्रकाशित हुआ उसमें से प्रमुख है, ‘बंगदूत’, ‘प्रजा मित्र’, ‘सामदंत मार्तंड’ और हिंदी का पहला दैनिक अखबार ‘सुधा वर्षण’ ।
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हिंदी पत्रकारिता का जो सिलसिला कोलकाता से शुरू हुआ वह निरंतर विकसित होता चला गया। ‘भारत मित्र’, ‘सार सुधा निधि’, ‘उचित वक्ता’ और ‘हिंदी वनवासी’ 19वीं शताब्दी के आखिरी दशकों में कोलकाता में प्रकाशित हुए हैं। हिंदी प्रदेशों में यही समय भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है जिससे हिंदी पत्रकारिता का समुचित विकास हुआ। बिहार में उसी के समानांतर ‘खड़क विलास प्रेस’ से गौरवशाली ‘बिहार बंधु’ का प्रकाशन होता था। ‘बिहार बंधु’ सन 1873 में कोलकाता से ही प्रकाशित हुआ था। उसके बाद सन 1874 में इस पत्र का प्रकाशन पटना से होने लगा और 1875 में इसका प्रेस भी यहां स्थापित हो गया। ‘बिहार बंधु’ हिंदी का दूसरा साप्ताहिक पत्र(पहला अल्मोड़ा अखबार) और बिहार का पहला हिंदी पत्र था। किंतु बिहार के लोकप्रिय पत्र का परिचय अब तक बहुत ही कम देखने को मिला है। या यों कहें कि इनकी जानकारी बहुत ही कम लोगों को है। ‘बिहार बंधु’ पहले साल कोलकाता से प्रकाशित होता रहा, फिर दूसरे वर्ष पटना से प्रकाशित होने लगा। यह पत्र जिस प्रेस से प्रकाशित होता था उसका नाम ‘पूरण प्रोकाश प्रेस’ था, जो कोलकाता में ही था। ‘बिहार बंधु’ अपने समय का बहुत ही लोकप्रिय तथा स्वतंत्र पत्र था। यह पत्र अपने निर्भीक राजनीतिक तथा सामाजिक विचारों के कारण तत्कालीन सरकार की आंखों का कांटा भी था, इन पंक्तियों में ‘बिहार बंधु’ की संतुलित स्पश्ष्टोक्ति द्रष्टब्य है- ‘हम लोग राजभक्ति हैं, खुशामदी नहीं। हम तो अपने मुल्क के दोस्त हैं। बस जो हमारे मुल्क का दोस्त है वह हमारा भी दोस्त, और जो हमारे मुल्क का दुश्मन है वह बेशक हमारा भी दुश्मन है।” जनता में लोकप्रिय होने का विशेष कारण यह था कि ‘बिहार बंधु’ बड़ी ही निर्भीकतापूर्वक जनता की दमित तथा शोषित भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता था। -बिहार-बंधु- पत्र को जब जैसा संपादक मिला, उसका रूप तदनुसार परिवर्तित होता गया। केशवराम भट्ट जब तक इसके संपादक रहे, ‘बंधु’ जनता में सम्मानित होता गया। इस पत्रिका का प्रमुख उद्देश्य था बिहार की कचहरियों में उर्दू-फारसी के स्थान पर देवनागरी लिपि में हिंदी को जारी करना।
‘बिहार बंधु’ सनातन धर्म का समर्थक था। ‘बिहार बंधु’ की आर्थिक स्थिति कभी भी संतोषजनक नहीं रही क्योंकि यह पत्र हमेशा प्रगतिशील रहा। इस पत्र को कभी किसी की सहायता नहीं मिली कई-कई बार तो इसे बंद करना पड़ा। इसी कारण से साप्ताहिक से मासिक, मासिक से पाक्षिक और फिर साप्ताहिक हुआ। यह पत्र 1892 ईसवी तक सप्ताहिक रहा किंतु 1893 से मासिक हो गया। उसके बाद सन 1902 से 1904 तक यह पाक्षिक रूप में प्रकाशित होता रहा फिर 1905 अक्टूबर में फिर से साप्ताहिक हो गया। इस प्रकार ‘बिहार बंधु’ ने अपने जीवन के पचास वर्षों में बहुत से उतार-चढ़ाव देखे हैं। यह अपने समय का बहुत ही जीवंत पत्र था इसीलिए इस पत्र का आज भी बहुत महत्व है। इस पत्र को समझने तथा इन्हें फिर से प्रकाशित करने की जरूरत है। इनसे बिहार के तत्कालीन हिंदी साहित्य और जीवन पर सीधा प्रकाश पड़ेगा। 1880 ईस्वी में पटना में खड़गविलास प्रेस से एक दूसरा मासिक पत्र ‘विद्या विनोद’ निकला। उसके बाद यहीं से 1883 में ‘भाषा प्रकाश’ निकला। इसी कड़ी में सन 1928 ईस्वी में रामवृक्ष बेनीपुरी और गंगाशरण सिंह के संयुक्त संपादन में ‘युवक’ की शुरुआत हुई। यह पत्र राष्ट्रीय भावना और सजग राजनीतिक चेतना के कारण ब्रिटिश साम्राज्य की आंखों में किरकिरी हो गया और इसी वजह से कुछ दिनों के बाद ‘युवक’ बंद हो गया।
बेनीपुरी जी का जब स्कूली जीवन समाप्त हुआ था उस समय पत्रकारिता का स्वर्णयुग चल रहा था। यह समय नवजागरण का युग था। उस समय पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य शिवपूजन सहाय, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, पारसनाथ त्रिपाठी, सोना सिंह, सकलनारायण शर्मा जैसे नामी-गिरामी लोग सक्रिय थे। इस समय राष्ट्रीय स्तर पर ‘प्रताप’, ‘भारत मित्र’, ‘यंग इंडिया’ आदि की धूम थी तो बिहार में सर्चलाइट, देश मनोरंजन, लक्ष्मी मारवाड़ी, सुधार आदि की चर्चा थी। बेनीपुरी जी के श्रधेय गुरुवर मथुरप्रसाद दीक्षित ने अपने यंग इंडिया की तर्ज पर ‘तरुण भारत’ नामक एक साप्ताहिक निकाला और बेनीपुरी जी ने भी अपनी पत्रकारिता की दीक्षा वहीं ली थी। उसमें वे गांधी जी के लेखों का अनुवाद करते थे। इसीलिए उन्होंने गुजराती भाषा सीखी थी। ‘तरुण भारत’ के बाद वे कुछ दिन ‘किसान मित्र’ नामक पत्र से जुड़े लेकिन अपनी बीमारी के कारण वे वहाँ भी ज्यादा दिन नहीं टिक पाए और इसके बाद वे मतवाला के संपादक कर्ता आचार्य शिवपूजन सहाय के संपर्क में आए। शिवपूजन सहाय ने बेनीपुरी जी को ‘गोलमाल’ नामक पत्र का संपादक बनावाया और उन्हें संपादन कला में पारंगत भी किया।
‘तरुण भारत’,’किसान मित्र’ और ‘गोलमाल’ पत्रकार बेनीपुरी के जीवन के प्रारंभिक अनुभव थे, लेकिन उन्हें वास्तविक पहचान ‘बालक’ से ही मिली। हिंदी के बड़े-बड़े लेखकों ने जैसे कामता प्रसाद गुरु, गौरीशंकर, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’,प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद आदि ने अपनी रचनाएँ ‘बालक’ में प्रकाशित करवाई। यह पत्रिका मुख्य रूप से बच्चों की पत्रिका थी। बेनीपुरी जी इसी पत्रिका से जुड़ने के बाद बाल साहित्य के महत्व को पहचान पाए थे। हिंदी में इस अभाव को दूर करने के लिए बेनीपुरी जी ने एक ऐतिहासिक काम किया। एक तो उन्होंने जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद्र जैसे बड़े साहित्यकारों से छोटे बच्चों को ध्यान में रखकर रचनाएं लिखने का अनुरोध किया और दूसरे स्वयं ‘बिलाई मौसी’, ‘बगुला भगत’, ‘सियार पांडे’, ‘हीरामन तोता’ आदि अनेक बार पुस्तकों की रचनाएँ की। ‘बालक’ पत्रिका के माध्यम से ही बेनीपुरी जी ने हिंदी की पहली नागरिकता को पहचाना। बेनीपुरी जी ने लिखा है कि “बालक का मेरे पत्रकार जीवन में विशेष महत्व है। इसके संपादन से ही मैंने अपनी योग्यता का अंदाजा पाया।” बेनीपुरी जी का ही प्रभाव था कि उनके समकालीन बिहार के प्रायः सभी बड़े-बड़े साहित्यकार ने बच्चों को ध्यान में रखकर रचनाएँ की जैसे-नागार्जुन एवं दिनकर। बेनीपुरी जी का कहना था कि छोटे बच्चे देश के भविष्य हैं यदि उन्हें साहित्यिक और सांस्कृतिक प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया तो फिर बाद में प्रयास करने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।
‘बालक’ के बाद बेनीपुरी जी की दृष्टि नौजवानों पर गई क्योंकि बालक को आगे चलकर युवक ही बनना है। बाबू गंगाशरण सिंह, रामनंदन मिश्र और बेनीपुरी जी की त्रिवेणी ने बिहार में एक नए नवजागरण की शुरुआत की। यह समय भारत के स्वाधीनता आंदोलन की युवा अवस्था का समय था, ऐसे में देश के नौजवानों से ज्यादा उम्मीद बनती थी। ऐसा नहीं था कि बेनीपुरी जी ने अपने जीविका का साधन पत्रकारिता को बनाया था बल्कि भारतीय नवजागरण की चेतना के अनुरूप उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगाकर पत्रकारिता का रास्ता चुना था। यहाँ तक कि 1929 ईस्वी में ‘युवक’ को निकालने के लिए बेनीपुरी जी को अपनी पुश्तैनी जमीन गिरवी रखनी पड़ी थी। ‘युवक’ का कार्यालय युवक आश्रम बन गया था और वह सदाकत आश्रम की तरह लोकप्रिय हो गया था। हिंदी में समाजवाद पर पहला महत्वपूर्ण लेख ‘युवक’ में ही प्रकाशित हुआ था और भगत सिंह की फाँसी के बाद भगत सिंह के पक्ष में ‘इंकलाब जिंदाबाद’ लेख ‘युवक’ में ही प्रकाशित हुआ और इसी संपादकीय लेख के लिए बेनीपुरी जी को डेढ़ साल के लिए जेल जाना पड़ा था। इसी प्रकार बहुत से महत्वपूर्ण नए लेखक ‘युवक’ के माध्यम से ही प्रकाशित हुए और चर्चित हुए। दिनकर जैसे प्रभावशाली कवि की प्रतिभा भी ‘युवक’ में प्रकाशित होकर ही सबके सामने आई। 1930 में बेनीपुरी जी ने ‘युवक’ का क्रांति अंक प्रकाशित किया और वे अंक ब्रिटिश सरकार द्वारा जप्त कर दी गई और पत्रिका बंद हो गई। इतना ही नहीं उन्हें डेढ़ साल तक हजारीबाग जेल में भी रहना पड़ा और जेल में रहते हुए भी बेनीपुरी ने ‘कैदी’ नाम से एक हस्तलिखित पत्र निकालना शुरू किया।
माखनलाल चतुर्वेदी हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के एक बहुत बड़े स्तंभ थे। रामवृक्ष बेनीपुरी को इनके साथ मध्य प्रदेश खंडवा में ‘कर्मवीर’ के संपादक कार्य में काम करने का मौका मिला। रामवृक्ष बेनीपुरी जी को इनके साथ काम करने में बहुत मजा आता था। लेकिन बेनीपुरी जी को बिहार की याद हमेशा सताती रहती और अंत में बेनीपुरी जी खुद को रोक नहीं पाए और खंडवा से वापस बिहार चले आए। उसके बाद 1935 ईस्वी में साप्ताहिक ‘योगी’ के संपादक बने। 1937 ईस्वी में समाजवादी विचारधारा के प्रमुख पत्र ‘जनता’ का प्रकाशन शुरू किया तब तक समाजवादी आंदोलन कांग्रेस से अलग होकर अपना निजी और व्यापक स्वरूप ग्रहण कर चुका था। डॉ. लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, युसुफ मेहर अली, अच्युत पटवर्धन, अशोक, मेहता, जयप्रकाश, जे. बी. कृपलानी आदि समाजवादी विचारधारा के प्रमुख स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे। बिहार में समाजवादियों का संगठन काफी मजबूत था। जे. पी का कार्यक्षेत्र भी बिहार ही था इसके अतिरिक्त पं.रामनंदन मिश्र, सूर्यनारायण सिंह, कर्पूरी ठाकुर, बसावन सिंह और स्वयं बेनीपुरी जी बिहार के प्रमुख समाजवादी नेता थे। बेनीपुरी जी ने यह एहसास किया कि बिहार में इतना सब कुछ होते हुए भी समाजवादियों के पास अपना कोई पत्र नहीं है। इसी बात का ध्यान रखते हुए बेनीपुरी जी ने ‘जनता’ का श्रीगणेश किया। ‘जनता’ में उन्होंने अपना वही पुराना बगावती तेवर कायम रखा।’जनता’ के दो अंक निकले ‘किसान’ तथा दूसरा ‘शाहिद’। ‘जनता’ के इन दोनों अंको में ब्रिटिश साम्राज्यवाद, कांग्रेस की समझौता परस्त राजनीति आदि पर निर्मम हमले होते थे। बिहार को कर्पूरी ठाकुर और रेणु जनता के माध्यम से ही प्राप्त हुए थे। दुबारा ब्रिटिश सरकार की कोपदृष्टि यहाँ पड़ी और पुनः गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेज दिए गए। फिर से उन्होंने जेल में एक दूसरी हस्तलिखित ‘कैदी’ की जगह हस्तलिखित ‘तूफान’ निकाला।
1946 में बेनीपुरी जी पुनः आचार्य शिवपूजन सहाय के साथ मिलकर ‘हिमालय’ के संपादन में लग गए। इस पत्रिका को शिवपूजन सहाय और बेनीपुरी जी दोनों ने मिलकर साहित्यिक पत्रकारिता की दुनिया में हिमालय जैसी ऊंचाई प्रदान की। हिमालय के संबंध में स्वयं बेनीपुरी जी लिखते हैं- “‘हिमालय’ हिंदी मासिक साहित्य में अनोखा प्रयोग था। सौ पृष्ठ, बढ़िया कागज, सुंदर छपाई, पक्की जिल्द, एक-एक अंक एक स्वतंत्र पुस्तक सा लगता था। फिर भीतर जो सामग्री हम प्रस्तुत करते थे, वह भी अनूठी होती थी। पहला अंक हमने तीन हजार छपवाया था, परंतु तुरंत ही उसका दूसरा संस्करण करना पड़ा। हिंदी के मासिक साहित्य के लिए यह एक अभूतपूर्व घटना थी।” 1950 ईस्वी में बेनीपुरी जी ‘नई धारा’ से जुड़े। ‘हिमालय’ के बाद साहित्यिक पत्रकारिता का यह उनका दूसरा अनुभव था। ‘नई धारा’ में ही बेनीपुरी जी ने अपने स्वभाव के अनुरूप एक टिप्पणी करके तहलका मचा दिया था। लिखा था कि हिंदी के तीन दुश्मन हैं- मौलाना आजाद जिनका कसूर यह था कि हिंदी के लिए वे कुछ भी करने को तैयार नहीं थे, दूसरे डॉ. रघुवीर जिनका अपराध था कि हिंदी को वे कुरूप और कठिन बना रहे थे और तीसरे बनारसीदास चतुर्वेदी इसलिए दोषी थे कि वे जनपदीय भाषाओं के आंदोलन को बढ़ावा दे रहे थे ।
पत्रकारिता के क्षेत्र में रामवृक्ष बेनीपुरी की भूमिका कम-से-कम बिहार में साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में दो-तीन पीढ़ियों के निर्माण से जुड़ी हुई है। बेनीपुरी जी का मानना है कि साहित्यिक संस्कार राजनीतिक चेतना के बिना अधूरा है तो राजनैतिक संस्कार साहित्यिक चेतना के बिना। बिहार के हिंदी पत्रकारिता में बेनीपुरी जी की ऐतिहासिक भूमिका पर लंबे समय तक किसान आंदोलन में उनके सहयोगी रहे बाबा नागार्जुन ने लिखा है-“बिहार में मेरी तरह दर्जनों कमलजीवी बेनीपुरी जी को अपना अग्रज मानते हैं। समाजवादी दलों के सैकड़ों युवक और अधेड़ अपनी अंतरात्मा के ‘साथी’ बेनीपुरी को एक एकाकार पाते हैं। बीसीयों पत्रकार सगौरव घोषित करते रहे हैं कि बेनीपुरी जी ने उन्हें कलम पकड़ना सिखाया था। उनके द्वारा संपादित ‘योगी’ और ‘जनता’ ने बिहार के लिए उस युग में वही रोल अदा किया जो रोल अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘प्रताप’ का उत्तर प्रदेश में रहा था।” रामविलास शर्मा ने ठीक ही कहा है कि पत्रकारिता में बेनीपुरी जी का योगदान गणेश शंकर विद्यार्थी और माखनलाल चतुर्वेदी की ही तरह है।
डॉ. वर्षा कुमारी