शीर्षक- मातृभूमि से प्रेम किसे
पहले अपने को देखा
ऊपर से नीचे, ध्यान से
क्या कमी है मुझमें
दिखता तो मैं भी हूँ औरों की तरह
फिर चार पहिए में बैठे लोगों को देखा
क्या अंतर है, उसमें और मुझमें
यही ना, वह गाड़ी में बैठा है
मैं सड़क के किनारे बैठा हूँ
उनका तन ढका है, मेरा नहीं
मैं भीख मांगता हूँ, वह देते हैं
शरीर तो एक जैसा है, फर्क यही है
उनका पेट भरा है, मेरा खाली है
उनका हाथ भी भरा है, मेरा खाली है
उनके पैरों के नीचे जूते हैं और गाडियाँ भी है
मेरे पैरों के नीचे मातृभूमि है
किस्मत उनसे अच्छी, मेरी है
मैं तो अपनी मातृभूमि को स्पर्श करता हूँ
उनके साथ खेलता हूँ, खिलखिलाता हूँ
लड़ाई करता हूँ, उस मिट्टी से नहाता हूँ
मैं जब रोता हूँ, तब कोई नहीं देखता
बस वही देखती हैं क्योंकि मेरे आँसू वही पीती हैं
जो मातृभूमि कहलाती हैं
अगर हमें तकलीफ है, तो मातृभूमि को भी जरूर होती होगी।।
शीर्षक- जात-पात कुछ नहीं होता
हम इंसानों ने जात-पात बनाया
धर्म के नाम पर बहुत कुछ बाँटा
किसी को हिन्दू तो किसी को मुस्लिम
किसी को क्रिश्चन तो किसी को जैन बनाया
फिर उनके कर्मों को भी बाँटा
पूजा का स्थान अलग-अलग बनाया
उनके रहन-सहन भी अलग-अलग बनाए
पर बाँट ना सके उन बाजारों को
जिसने सबके लिए एक ही बनाया
पर बाँट ना सकें उन सड़कों को
जिसने सबके चलने के लिए एक ही मार्ग बनाया
पर बाँट ना सके उन पानी के बूंदों को
जो सबके लिए एक समान बरसता है
पर बाँट ना सके उन सूरज की किरनों को
जो सबके लिए एक समान रोशनी देता है।।
शीर्षक- दलित का दर्द
एक बार दलित के दर्द को देखो
कितना दर्द है, उसके सीने में।।
दलित शब्द ही उसके लिए अभिशाप है
दलित कहलाना उसकी मर्ज़ी नहीं, मजबूरी है।।
वो भी जीना चाहते हैं, औरों की तरह
पर दलित शब्द उन्हें, जीने की राह नहीं दिखाती।।
उन्हें अछूत तथा अस्पृश्य शब्द से संबोधित करते हैं
इसीलिए, गांवों में दलित टोला बनवाते हैं।।
कुँए से उन्हें पानी भी नहीं भरने देते हैं
कहते हैं, पानी अशुद्ध हो जाएगा।।
उन्हें शिक्षा का अधिकार भी नहीं देते हैं
कहते हैं, विद्यालय अपवित्र हो जाएगा।।
मंदिरों में प्रवेश नहीं करने देते हैं
कहते हैं, स्पर्श से भगवान अपवित्र हो जाएंगे।।
ग्रन्थों का अध्ययन नहीं करने देते हैं
कहते हैं, ग्रन्थ अपवित्र हो जाएगा।।
एक बार दलित के दर्द को देखो
कितना दर्द है, उसके सीने में।।
डॉ.वर्षा कुमारी