यह कहानी समाज में बुजुर्गो के साथ हो रहे अन्याय को दर्शाती है । ज्यातर बुजुर्गो के साथ ऐसी घटना देखने को मिलेगी । जहाँ बुजुर्गों की मान मर्यादा का कोई मान नहीं होता ।उनकी लालसाओं को नजरंदाज किया जाता है। उन्हें उपेच्छित भाव से देखा जाता है । ऐसी ही परिस्थितियों में जकड़े माँ -बाप एक दिन घर छोडने पर विवश हो जाते हैं ।
आरव- माँ-पिताजी, मैं बाजार जा रहा हूँ, आपलोगों को कुछ चाहिए क्या? माँ- नहीं बेटा कुछ नहीं चाहिए । कविता- गुस्से में, मुझसे तो कभी पूछते नहीं। माँ और पिताजी से ही पूछते हो। आरव- ऐसा नहीं है कविता, तुम तो अपनी जरूरत की चीजें बोल देती हो पर वो लोग कुछ नहीं बोलते। वो तो खुद बोलते हैं कि बेटा अब हमारी उम्र हो गई है, अब हमें दो जून की रोटी मिल जाए वही ठीक है। कविता- क्रोधित अवस्था में। ठीक है अब जाओ भी जल्दी। बंटी- पापा…. पापा मुझे पिचकारी ला देना। आरव- ठीक है बेटा। कविता होली की तैयारियों में लगी थी। तरह-तरह के पकवान बना रही थी। माँ- खुशबू तो बहुत अच्छी आ रही है। पिताजी- लगता है बहू इस बार कुछ खास बना रही है। तुम्हारा तो जी ललचता होगा। वैसे भी तुम्हे तो पकवान बहुत भाते हैं। कहते हुए पिताजी रसोईघर की ओर बढ़ें। पिताजी- बहू इस बार कुछ अलग पकवान बना रही हो क्या? खुशबू तो बड़ी अच्छी आ रही है बाहर। तुम्हारी माँ के मुँह से पानी आ रहा है। कविता- नहीं……नहीं पिताजी ऐसी कोई बात नहीं है। बुढापे में आपलोगों को कुछ ज्यादा ही सूंघने की आदत हो गई है। पिताजी- तुम्हारी नाक बहुत तेज हो गई है। बहू कोई पकवान नहीं बना रही है। माँ- ओहहह…….., मुझे लगा कि आज तो मिलेगा पकवान खाने के लिए। खैर……..। कविता- माँ, पिताजी आपलोग खाना खा लीजिये। आरव को आने में समय लगेगा अभी। माँ, पिताजी- ठीक है बहू । खाना खाने के बाद माँ-पिताजी अपने कमरे में चले गए। बाजार से आते ही आरव- जल्दी खाना लगा दो कविता, बड़ी जोर की भूख लगी है। माँ-पिताजी ने खाना खाया क्या? कविता- हाँ, उनलोगों ने खाना खा लिया। आप हाथ-पैर धो लो, और बंटी को भी बुला लो उसने भी अभी तक नही खाया। आरव- वाह!! क्या महक है ऐसा क्या बनाया है तुमने? कविता- मैंने आज खाना आपके पसंद का बनाया है। आरव- तब तो माँ ने आज बहुत चाव से खाया होगा। कविता- हाँ,आज तो बहुत पसंद से खाई हैं माँग-माँग कर। डायनिंग टेबल पर बैठे कविता और आरव में बाते चल रही थी। कुछ समय पश्चात …… माँ- अरे! मैं तो अपनी दवाई खाना ही भूल गयी। पिताजी- रुको मैं पानी लेकर आता हूँ। कमरे से बाहर जाते ही पिता जी ने देखा कि हमें तो बहू ने दाल-चावल खिलाया था और सभी लोग पकवान खा रहें हैं। उनके पैरों तले की जमीन खिसक गई और चुप-चाप पानी ले जाकर पत्नी को दे दिये। पत्नी – आप आराम करो मैं थोड़ा और पानी लेकर आती हूँ। पिताजी ने झट से पत्नी के हाथ से गिलास छीन लिया। वो नहीं चाहते की पत्नी को पता चले की सच में आज घर में पकवान बना है। पर बहू ने हमें नहीं दिया। शाम के 5 बजते ही पिताजी- आरव बेटा जरा ऑटो रिक्शा बुला देगा क्या? बाजार जाना है । पिताजी की बातों को सुन कर आरव चकित हो गया। आरव- आपकी तबीयत तो ठीक है न पिताजी? क्योंकि आज तक आप कभी ऑटो रिक्शा से बाजार नहीं गए। पिताजी- अरे! हाँ…..हाँ बेटा मैं ठीक हूँ। तेरी माँ को आज बाजार ले जा रहा हूँ……………। पत्नी – ये कहाँ ले कर आये हो। पिताजी- राम राम चिंटू बेटा, कैसे हो? आज अपनी दादी को अपने दुकान की सबसे अच्छी-अच्छी मिठाइयां खिलाना। पत्नी को बोलते हुए- तुम्हें आज पकवान खाने का दिल कर रहा था न। अब तुम्हें जो खाना है, जी भर के खा लो। फिर न बोलना की खिलाया नहीं ।
कुछ दिन बाद ……., आरव- पिता जी से, आज मेरी दुकान वाले चिंटू से लड़ाई हो गई बातों ही बातों में। बोल रहा था की कुछ दिन पहले माँ और पिताजी आए थे उनका कुछ उधार बाकी है कब दोगे? अरे माँ तो कहीं जाती नहीं हैं। कुछ लोगों को झूठ बोलने की आदत हो जाती है। मैंने भी बहुत भला-बुरा बोला उसे। पिताजी ने सोचा की अब बात बिगड़ सकती है तभी लज्जित अवस्था में बोले- आरव बेटा, चिंटू सच बोल रहा है। तुझे याद है तेरी माँ और मैं एक दिन बाहर गए थे। मैं तेरी माँ को खिलाने के लिए ले गया था। उस दिन घर में बहू ने पकवान बनाए थे इसका जी ललच रहा था। तुम्हारी माँ को मिला नहीं खाने के लिए। इसीलिए मैं तुम्हारी माँ को बाहर ले गया खिलाने के लिए। इसी महीने तुम्हारी माँ का चश्मा भी टूट गया था तो दूसरा बनवाना पड़ गया। कुछ पैसे तो उसी में खर्च हो गए थे। बेटा मेरे पास 150 रुपए मात्र थे, जिसमे से 50 रुपये आटो रिक्शे को दे दिये मैंने। बाकी के 100 रुपए दुकान वाले को दे दिये और पैसे बाद में दे दूंगा बोल दिया था। इस बार बहू ने पॉकेट खर्च भी कम………….बोलते-बोलते मानो पिताजी का सर झुका जा रहा था। क्या करता बेटा तेरी माँ को खिलाए बिना मुझे चैन नहीं आ रहा था। तभी आरव को उस दिन की बातें याद आती है की कविता ने तो बोला था की माँ तो बहुत चाव से खाई हैं माँग-माँग कर। और उसे ये भी याद है कि मैंने तो कविता को हर बार जीतने ही पैसे दिये थे पिताजी को देने के लिए। पर कविता ने………..। आरव विवश अवस्था में- पिताजी मुझे क्षमा कर दीजिये। मैं एक अच्छी पत्नी तो ले आया, पर एक अच्छी बहू नहीं ला सका।
एक अच्छी पत्नी की तलाश तो ठीक है पर हमें यह भी देखना चाहिए की क्या एक अच्छी पत्नी एक अच्छी बहू बन सकती है? घर में अगर अच्छी बहू रहे तो प्रत्येक घर में बुजुर्गों की स्थिति बेहतर होगी । समाज की प्रत्येक नारी से यही प्रार्थना है कि वो पूरे देश में एक अच्छी बहू का मिसाल कायम करे ।
डॉ.वर्षा गुप्ता