अंश जतिन से कहता हुआ आता है,पापा…पापा! आज मुझे आपके हाथों से खाना खाना है। जतिन कहता है बेटा, देख नहीं रहे मैं फोन पर बिजनेस के सिलसिले में बात कर रहा हूँ किसी से। जाओ मम्मा खिला देंगी।
अंश बबली से कहता है मम्मा ,मुझे खाना खिला दो आप। बबली लैपटॉप पर काम करती हुई कहती है , बेटा तुम खुद से खा लो मम्मा अपना काम कर रही है न।
जाओ पुष्पा आई तुम्हें खिला देंगी। अंश ने पुष्पा आई से कहा…पुष्पा आई,पुष्पा आई! मुझे खाना खिला दो आप , मम्मा ने कहा है।
पुष्पा आई अंश को डायनिंग टेबल पर बैठा कर ख़ाना खिलाने लगी। तभी जतिन की आवाज आई, पुष्पा आई! मेरा लंच बॉक्स तैयार हो गया? बबली ने कहा पुष्पा आई मेरे कपड़े प्रेस हो गए क्या?
पाँच साल का अंश नाश्ता करते हुए सब कुछ देख रहा था।
तभी बस की हॉर्न सुनाई दी,पी…..पी……पी…..झट से अंश ने अपना स्कूल बैग उठाया और बस की ओर भागा।
जतिन और बबली भी जा चुके अपने -अपने ऑफिस। उसके बाद पुष्पा ने अम्मा और बाबूजी को नाश्ता कराया।
बाबूजी ने कहा आज भी मैं जतिन से नहीं पूछ पाया,जतिन तो ऑफिस के लिए निकल गया। कल मैं मॉर्निंग वॉक से घर जल्दी आ जाऊँगा।
अम्मा- हाँ,अब कल ही पूछ लेना ।
रात के 11:30 हो चुके, घंटी की आवाज सुनाई दी जतिन और बबली आ गए। अंदर आते ही जतिन ने कहा- पुष्पा आई, कल सुबह का नाश्ता जल्दी बना देना, कल ऑफिस मुझे 4:30 में ही जाना है ।
पुष्पा आई ने जतिन और बबली को ख़ाना खिलाया फिर दोनों अपने कमरे की ओर चले गए।
दूसरे दिन बाबूजी जल्दी उठे और मॉर्निंग वॉक से घर जल्दी आ गए ।
बाबूजी ने पुष्पा से पुछा कि जतिन अभी उठा नहीं क्या ?
पुष्पा ने कहा,आज साहेब तो 4:30 में ही ऑफिस के लिए निकल गए थे।
बाबूजी- ओह!! कोई बात नहीं। आज रात में मैं जतिन के आने का इंतजार ही
कर लूँगा। वही ठीक रहेगा।
फोन की घंटी की आवाज सुनाई दी, शाम के लगभग 7 बज रहे थे।
बाबूजी ने पुष्पा से पूछा , किसका फ़ोन था? पुष्पा ने कहा,जी साहेब बोले कि आज मुझे घर आने में 1,2 बज जायेंगे ।
बाबूजी- ओहहह हह!!!
रात के 1;30 बजे घर आते ही जतिन ने पुष्पा आई से सबका हाल- चाल पूछा और अपने कमरे में चला गया।
अंश और बबली भी सो चुके थे। जतिन अंश के सर पर हाथ फेरा और फिर सो गया। देर रात घर वापस आने की वजह से जतिन सुबह 9 बजे तक सोता रहा। ऑफिस से फ़ोन आते ही फटाफट जतिन तैयार होकर ऑफिस चला गया।
बाबूजी ने पुष्पा से कहा , जतिन उठे तो मुझे बता देना। मुझे उससे कुछ बात करनी है।
बहुत समय बाद जब बाबूजी ने जतिन को नहीं देखा तो पुष्पा से जतिन के बारे मे पुछा तो उन्हें पता चला कि जतिन तो अभी -अभी ऑफिस के लिए निकला हैं। उसके ऑफिस से फ़ोन आया था।
बाबूजी मन-ही-मन अब बहुत दुखी हो रहे थे। उन्होंने सोचा आज फ़ोन से ही बात करनी पड़ेगी
जतिन से। कश्मकश में फंसे बाबूजी शाम 4 बजे के लगभग फ़ोन के पास जाकर बैठे, एक बार रिसीवर उठाया फिर रख दिया। बहुत मुश्किल से दूसरी बार रिसीवर उठा कर जतिन के ऑफिस फ़ोन लगाया तो पता चला कि जतिन किसी अर्जेंट मीटिंग में गया है।अब बाबूजी स्थिर से पड़ने लगे ।
कुछ देर बाद…….
फ़ोन की घंटी बजी, बाबूजी ने सोचा जरूर जतिन का फ़ोन होगा।
बाबूजी ने पुष्पा आई से पूछा किसका फ़ोन है?
पुष्पा भावुक अवस्था में बोलती है बाबूजी, आपके भाई की अंतिम साँसे चल रही है, मुम्बई से फ़ोन था। आपको बुलाया है।
बाबूजी के होंठ थरथराने लगे, वो बहुत कुछ कहना चाहते मगर…??
जतिन- घर आते ही बाबूजी से कहा ,आपको पता था कि चाचा बीमार हैं अस्पताल में हैं,
तो आप और माँ चले गए होते मिलने।
बाबूजी निरीह अवस्था में बोले बेटा, कई दिनों से मैं तुमसे बात करना चाह रहा था इस विषय पर, लेकिन तुम अपने कामों में बहुत व्यस्त रहते थे। कई दिनों से तो तुमसे बात भी नहीं हुई मेरी। तुम देर रात घर आते, फिर सुबह-सुबह ही ऑफिस चले जाते थे। इसीलिए मैंने आज तुम्हारे ऑफिस फ़ोन भी किया था कि कैसे भी तुमसे एक बार बात करके बोलूँ कि बेटा हमारी मुम्बई जाने की टिकट काटवा दो, तुम्हारे चाचा जी बहुत बीमार हैं। तुम्हारे चाचा से एक बार मिल लूँ। बोलते- बोलते बाबूजी की आँखें डबडबा गई……. ।
इतना सुनते ही जतिन बाबूजी से लिपट कर खूब रोने लगा। मुझे क्षमा कर दीजिए बाबूजी,शायद मैं अपनी जिम्मेदारी को निभाते-निभाते अपने रिश्ते को ही ओझल कर दिया। वो सोचता है कि क्या मेरे लिए पैसा ज्यादा अहम है? मेरे परिवार में इतने फासले है। मैं समझ ही नहीं पाया। ऐसा जीवन तो व्यर्थ है, जो एक छत के नीचे रहते हुए भी एक दूसरे से बात करने के लिए कई-कई दिनों तक प्रतीक्षा करनी पड़े। आज मुझे प्रतीति हो गया कि रिश्ते और जिम्मेदारी दो अलग-अलग चीजें हैं। रिश्ते जो अटूट होते हैं और ज़िम्मेदारी वो हम पर निर्भर करता है कि हम उसे कितने सरल तरीके के निभाए की रिश्ते टूट ना जाए।
जतिन बबली से अपना लैपटाप मांगते हुए बोला, सभी लोग तैयारी कर लो हम आज ही फ्लाइट से मुंबई जा रहे हैं चाचाजी से मिलने।
बाबूजी, बेटा तेरा ऑफिस……???
जतिन कहता है बाबूजी, हमें भी तो कभी-कभी वो खास लम्हों का इंतेजार होता है जिसे मैं अपने परिवार के साथ बिता सकूँ। इतना सुनते ही बाबूजी के चेहरे पर एक मुस्कान छलक गई ।
*जिम्मेदारियों को निभाते-निभाते रिश्तों की डोर कब कमजोर हो जाती है,हमें पता ही नहीं चलता। डॉ.वर्षा कुमारी