आत्मकथा लिखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है अपने प्रति ईमानदारी और निर्वैयक्तिकता। कल्पना की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। न ही झूठ की बुनियाद पर कहानी गढ़नी चाहिए। इन सबसे बचते हुए आत्मकथा को जीवन में घटने वाले सच्ची घटनाओं से रूबरू कराना ही आत्मकथाकार की विशिष्ट उपलब्धि होनी चाहिए। मेरे अनुभव से एक अच्छा आत्मकथाकार वही हो सकता है जो बिना अपनी परवाह किये बेवाकी से अपने जीवन में घटने वाली घटनाओं का ताना-बाना बुने।
आत्मकथा साहित्य की एक बहुत ही लोकप्रिय विधा के रूप में चर्चित है। आत्मकथा में लेखक अपने जीवन के सभी तरह की घटनाओं को आधार बनाकर लिखता है और अपने जीवन की सच्चाई पर प्रकाश डालता है। जब कोई व्यक्ति आत्मकथा लिखता है तो उसके पीछे उसका एक निश्चित उद्देश्य से जुड़ा होता है ।
ऐसा माना जाता है कि स्त्रियां अपनी निजी जिंदगी को सार्वजनिक करना नहीं चाहती। यही वजह रहा की आत्मकथा के क्षेत्र में स्त्रियों का आगमन बहुत देर से हुआ। हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में पुरुषों के साथ-साथ लेखिकाओं ने जिस तरह परचम लहराया है वह साहित्य के लिए गौरव का विषय है। महिलाओं की आत्मकथाओं में एक अजीब तरह की छटपटाहट दिखाई देती है। वह छटपटाहट है, कुछ कर गुजरने की। समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाने की। उसकी पहचान उसके नाम से हो, न कि उसके पिता और पति के नाम से। अगर दूसरे नजरिए से देखा जाए तो महिलाओं की आत्मकथाओं में कहीं-न-कहीं स्त्री विमर्श और स्त्री सशक्तिकरण दस्तक दे ही जाता है।
बृहद हिंदी कोश के अनुसार– “आत्मकथा का अर्थ हुआ स्वलिखित जीवन चरित।”
हिंदी साहित्यकोश के अनुसार– “आत्मकथा लेखक के अपने जीवन का संबंध वर्णन है।”
मराठी विश्वकोश के अनुसार- “अपने जीवन विषयक अनुभव तथा उसके अनुरूप अपने व्यक्तित्व का उसी लेखक द्वारा अपने लेखन के माध्यम से बयान करना आत्मकथा है।”
भारतीय संस्कृति कोश के अनुसार– “अपने जीवन से संबंधित लेखक जो भी लिखता है वह आत्मकथा कहलाता है।”
संस्कृत आचार्यों के अनुसार- “अपने बारे में बताना आत्मकथा है।”
रविंद्र नाथ टैगोर ने अपनी आत्मकथा की भूमिका में लिखा है कि,”आत्मकथा जीवन का सत्यान्वेषण है, कल्पना के अवकाश के कोरी उड़ान नहीं है। आम आदमी का जीवन प्रेरणारूप नहीं हो सकता, महान व्यक्तियों का व्यक्तित्व एवं कृतित्व आम आदमी के लिए दिशा बोध का काम करता है, उनके जीवन के आदर्शनिष्ट मूल्यों को स्वीकार करता हुआ उस पथ पर अपने आप को ढालने का प्रयास करता है। आत्मकथा सत्य एवं स्पष्टवादिता को लेकर चलती है।”(रविन्द्र नाथ टैगोर-मेरी आत्मकथा,भूमिका)
प्रसिद्ध आलोचक बाबू गुलाब राय ने आत्मकथा के विषय में लिखा है कि, “आत्मकथा में लेखक जितना अपने बारे में जान सकता है, उतना लाख प्रयत्न करने पर भी कोई दूसरा नहीं जान सकता, किंतु इसमें कहीं तो स्वभाविक आत्मश्लाघा की प्रवृत्ति बाधक होती है, और किसी के साथ शील संकोच आत्मप्रकाश बाधक होती है और किसी के साथ शील संकोच आत्मप्रकाश में रुकावट डाल देता है। यद्यपि सत्य के आदर्शों से दोनों ही प्रवृतियां निन्ध है तथापि आत्म विस्तार कुछ अधिक का अवांछनीय है।”(बाबू गुलाबराय-काव्य के रूप-232)
रमणिका गुप्ता आत्मकथा के विषय में कहती है कि “आत्मकथा को सीधे शब्दों में परिभाषित किया जाएं तो ‘कन्फेशन’ ही कहा जा सकता है। ‘कन्फेशन’ समाज को कुछ दे चाहे न दे उसकी गलतियों और उसकी संकीर्णताओं को आगे सुधारने की दिशा जरूर दे सकती है और स्वतंत्र और ईमानदार समाज के निर्माण में सहायक भी हो सकती है। किसी व्यक्ति की जिंदगी अथवा समाज को दिशा देने के लिए आत्मकथाएं समाज को बदलने या संभालने का ज्यादा मौका दे सकती है।”
लेखिका चंद्रकिरण सौरेनरेक्सा आत्मकथा के विषय में करती हैं कि “आत्मकथा अर्थात किसी व्यक्ति की जीवन यात्रा। विश्व के सभी मनुष्य छोटा बड़ा जितना भी जीवन जीते हैं वही उनकी जीवन यात्रा होती है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। प्राचीन मानव हो या आधुनिक युग का इंसान सभी किसी-न- किसी समाज में रहकर पले और बढ़ें हैं। उस युग की भौगोलिक स्थिति के अनुसार उसकी जीवन यात्रा रही है।”
कुछ लेखिकाओं की आत्मकथाओं को हम यहाँ देख सकते हैं- पद्मा सचदेव- ‘बूँद बावड़ी’, सीमोन द बोबुआर- स्वतंत्रता और प्रेम की राह, मैत्रेई पुष्पा- कस्तूरी कुंडल बसै, रमणिका गुप्ता- हादसे, मन्नू भंडारी- ‘एक कहानी यह भी’, चंद्रकिरण सौरेनरेक्सा – ‘पिंजरे की मैना’, कृष्णा अग्निहोत्री- ‘और और औरत’, लगता नहीं है दिल मेरा , प्रभा खेतान- अन्या से अनन्या, सुशीला टाभौरे- ‘शिकंजे का दर्द’।
1956 में प्रकाशित जानकी देवी बजाज की आत्मकथा ‘मेरी जीवन यात्रा’ को देखा जा सकता है। इस आत्मकथा में जानकी देवी जी ने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व तथा पति के आदर भाव को प्रकट किया है।
चंद्रकिरण सौरेनरेक्सा की आत्मकथा ‘पिंजरे की मैना’ एक अलग तरह की आत्मकथा है। यह आत्मकथा कुल 416 पृष्ठों का है। इस आत्मकथा में चंद्रकिरण जी ने जीवन के सभी पहलुओं पर प्रकाश डाला है। 82 वर्षीय लेखिका इस आत्मकथा में अपने जीवन में घटित सभी घटनाओं पर बहुत ही सरल तरीके से प्रकाश डाला है। आत्मकथा में व्यक्ति की आप बीती ही नहीं होती है, बल्कि जगबीती भी होती है। लेखिका ने इस आत्मकथा में यही दिखाने का प्रयास किया है।
कुसुम अंसल जी अपनी आत्मकथा में ‘जो कहा नहीं गया’ में एक सामाजिक जीवन का वर्णन करती हैं। समाज में उनकी पहचान उनके पिता की प्रतिष्ठा के कारण थी। पर वह अपनी अलग पहचान बनाना चाहती थीं। पर ऐसा हो नहीं सका।
सुशीला टाकभौरे जी ने अपनी आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ में यह दिखाया है कि इस समाज में स्त्री होने की पीड़ा क्या होती है और दूसरा दलित जीवन की विसंगतियों पर उन्होंने प्रकाश डाला है। वह कहती है कि दलित वह व्यक्ति है जो विशिष्ट सामाजिक स्थिति का अनुभव करता है। जिसके अधिकारों को छीना गया। मात्र धर्म के आधार पर जिनको समाज में एक ही प्रकार का जीवन मिला है। मनुष्य के रूप में अनेक मूल्यों को नकारा गया है।
मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मकथा ‘एक कहानी यह भी’ में अपने बचपन से लेकर युवावस्था तक के जीवन में घटित सभी घटनाओं का विवेचन किया है। यह आत्मकथा मन्नू भंडारी की जीवन स्थितियों के साथ-साथ उनके दौर की कई सामाजिक और साहित्यिक, साथ-साथ राजनीतिक परिस्थितियों पर भी प्रकाश डालता हुआ नजर आता है। इस आत्मकथा में लेखिका को स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागिता के रूप में भी देखा जा सकता है। इस आत्मकथा में लेखिका का चरित्र एक ऐसी स्त्री के रूप में हमारे सामने आता है जिसके मन में न कोई खुशी है, न कोई उत्साह है, न सुख में खुशी का अनुभव है, न दुख में गम में भीगी उनके उनकी पलके हैं।
कौशल्या वैसंत्री की आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ जो कि हिंदी दलित साहित्य की पहली आत्मकथा मानी जाती है। इस आत्मकथा में कौशल्या जी के साहसी चरित्र को देखा जा सकता है। एक दलित स्त्री को दोहरे अभिशाप से गुजरना पड़ता है, पहला उसका स्त्री होना और दूसरा उसका दलित होना।
अतः देखा जा सकता है कि लेखिकाओं ने अपनी आत्मकथाओं में अपने जीवन में संघर्षों से गुजरने वाले दौर को बखूबी लिखने का प्रयास किया है। चाहे वह समाज से प्रेरित हो, या अपने घर परिवार से, उन्होंने अपनी आत्मकथाओं में जीवन संघर्ष को दिखाने का प्रयत्न किया है। बहुत सी लेखिकाओं ने उस संघर्ष से निपटते हुए अपने जीवन को सुख में भी बनाया है। अतः महिलाओं की आत्मकथाओं से हमें कहीं-न-कहीं प्रेरणा भी मिलती है। वक्त के साथ महिला आत्मकथकारो की संख्या में काफी बढ़ोतरी हो रही है
डॉ.वर्षा गुप्ता