अनामिका हिंदी काव्य-क्षेत्र की कवयित्री हैं यद्यपि उनकी प्रतिभा कथा-साहित्य में भी कर्मनिरत है फिर भी उसका पूर्ण-परिपाक कविता में हुआ है। वे ऐसी काव्य लेखिका हैं जिनका कैरियरग्राफ उत्तरोत्तर अग्रसर है। अनामिका उत्तराधुनिक युग की कवयित्री हैं, जब नारीवाद एवं नारी-विमर्श जोरों पर पहुंच गया है। इसीलिए उनकी कविताओं की भी दो प्रमुख धाराएँ हैं- एक समकालीन जीवन-विमर्श की और एक नारी विमर्श की। अनामिका ने अपनी कविताओं में नारी जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाया है और नारी-मुक्ति की आवाज बुलंद की है। दूसरी ओर उन्होंने युग- स्पंदन से परिचालित अनेक कविताएँ लिखी हैं, जिनमें समय की नब्ज को पकड़ने का सफल प्रयत्न है। काव्य की इन दोनों धाराओं में कवयित्री ने दक्षता हासिल की है। एक कवयित्री के रूप में अनामिका को व्यापक पहचान उनके 1990 में प्रकाशित संग्रह ‘समय के शहर में’ से मिली थी तब भूमिका में संग्रह पर टिप्पणी करते हुए उचित ही कहा गया था, ‘समय के शहर में’ अनामिका का पहला काव्य संग्रह है, जो बिना किसी दुराव-छिपाव के, उनके अब तक के पूरे काव्य-विकास का सच्चा तथा प्रमाणित ‘ग्राफ’ प्रस्तुत करता है। इसके बाद प्रकाशित ‘बीजाक्षर’ अनामिका के विकास को दर्शाने वाला संग्रह है। इस संग्रह की कविताएँ इस बात का प्रमाण है कि अनामिका ने अपने समय के काव्य मुहावरे को पकड़कर दनादन कविता लिखने के बदले अपने को निरंतर मांजा है।
अनामिका के विषय में यह ठीक ही कहा गया है कि “वे सिर्फ कविता में ही नहीं, बल्कि अपने संपूर्ण लेखन में नारी दृष्टि की एक उदार सांस्कृतिक प्रवक्ता बनकर उभरी हैं। उनका स्वर नयी शताब्दी का स्वर है, जिसकी स्थिर हलचलों में बुलबुलाते कोमल सवाल अपनी तमाम फितरतों के साथ स्थापित विमर्शो को अस्थिर करते चले जाते हैं।” अनामिका के कवि कर्म के केंद्र में ‘स्त्री’ जीवन है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन इसमें यह जोड़ा जाना चाहिए कि वह मनुष्य में उपस्थित विडंबना और सौंदर्य की भी कवयित्री हैं। वे उन स्त्रीवादियों में नहीं हैं, जो पुरुष विरोध को ही अपना सर्वोपरि कर्म मान चुकी हैं। यदि अनामिका के अब तक के कवि-कर्म पर दृष्टि डालें तो उनकी कई कविताओं में ऐसे प्रसंग मिलेंगे, जो यह दर्शाते हैं कि यह कवयित्री सिर्फ एक ढर्रे पर नहीं सोचती।
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अनामिका ने 1975 में जो काव्य-यात्रा शुरू की थी, वह 2008 में एक निश्चित मुकाम तक पहुंच चुकी है। अपने पहले संग्रह के प्रकाशन के 33 वर्षों बाद आज अनामिका समकालीन हिंदी कविता का एक प्रमुख चेहरा है। ‘खुरदुरी हथेलियां’ और “दूब-धान’ में संकलित कविताएं उनकी बड़ी रेंज का पता देती है। इनकी कविताएँ बहुत सी स्त्रियों को अपनी बात लगती है। उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि चाहते हुए भी मैं जो बात नहीं कर पाई अनामिका ने उसे कितने सरल ढंग से कहने का साहस दिखाया, जैसे- “एक दिन हमने कहा/ हम भी इंसान हैं-/ हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर/ जैसे पड़ा होगा बी.ए के बाद/नौकरी का पहला विज्ञापन/ देखो तो ऐसे/ जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है/ बहुत दूर जलती हुई आग/ सुनो हमें अनहद की तरह/और समझो जैसे समझी जाती है/ नई-नई सीखी हुई भाषा!”
जीवन जगत की गहरी अनुभूति, जिसमें लोक भावों का मन खूब फैलकर पसरा बैठा है जो आराम से अपने मन की खूब छान-बीन कर रहा है। लोक और स्त्री जीवन की अनुभूति का ऐसा अद्भुत संगम बहुत कम लोगों की काव्य अनुभूतियों में मिलता है, “चिड़ियाँ ही होना था तो शुतुरमुर्ग क्यों हुई मैं/सुंघनी ही थी कोई लाडली नाक मुझे सूंघती/ यह क्या कि सूंघा तो सांप।” भीतर से मन को कंपा देने वाली यह तीक्ष्ण अनुभूति कविता में शायद ही कहीं ढूंढे मिले। रचनाकार की दृष्टि किसी अनुभूति को रचना का रूप कैसे देती है, यह अनामिका की कविताओं को पढ़कर जाना जा सकता है। वह मन की भीतरी तहों में ठहरी अनुभूतियों को सहज शब्दों में कविता में उतारकर रख देती हैं, जो देखते ही बनता है। संवेदना के स्तर पर जो बात अनामिका को दूसरी कवयित्रियों से जोड़ती है, वह उनका ‘तोष’ नहीं, बल्कि ‘भरोसा’ है। यहाँ वे आत्म-बद्धता की सीमाओं से बाहर निकलती दिखाई देती हैं। यह भरोसा उन्हें अपने मध्यवर्गीय शहचरों से नहीं मिलता, रिक्शाचालक श्रमिक से मिलता है। लौटने का वादा करके बिना पैसा दिए काव्य-वाचिका चली गई, दूसरे कामों में भूल गई, जाने कब लौटी, पर वह इंतजार करता रहा, बिना यह सोचे कि सवारी कहीं धोखा ना दे गई हो! कवयित्री यह समझती हैं कि–” होता है, पर इतना दुर्लभ नहीं होता/ आदमी का आदमी पर भरोसा/ लेकिन विचित्र बात यह है कि/ अक्सर वह होता है वहां/ जहां हमें होती नहीं बिल्कुल/ उनकी उम्मीद।”औरतों के जीवन संदर्भों का चालीसा है अनामिका की कविताएं, जिनसे शायद ही स्त्री के जीवन का कोई भी पहलू छूट गया हो। स्त्री संवेदना में गहरी उतरी यह कविताएँ पाठक के भी भीतर टंककर रह जाती हैं। “रहती हैं वृद्धाएं घर में रहती हैं/ लेकिन ऐसे जैसे अपने होने के खातिर हो क्षमा प्रार्थी/ लोगों के आते ही बैठक से उठ जाती हैं/ छुप-छुपकर रहती हैं छाया सी माया सी।”
स्त्री की संवेदनाओं को खंगालती ये कविताएं समकालीन हिंदी कविता का एक मानदंड स्थापित करती है। स्त्री टूटती नहीं, तोड़ी जाती है- कभी समाज के द्वारा, कभी खुद के द्वारा। इन गहरे एहसासों को अनामिका कुछ इस तरह व्यक्त करती हैं, ” मैंने तोड़ा खुद को/ कूट-कूटकर/धूल-धूल कंकड़ी-कंकड़ी हुई/उड़ी तो कभी आंखो में किरकिरी से/ गिरी घँसी तो नींव में जा पड़ी।” टूटकर जर्रा-जर्रा होती हुई स्त्री अपने अस्तित्व को खोती नहीं है। जहाँ जिस स्थिति में होती है, अपने होने का एहसास कराती है। इसी तरह एक दूसरी कविता में भी अनामिका कहती हैं, “एक चीख मेरे भीतर दबी है/ उसका बस चले अगर तो/ मेरी पसलियां तोड़ती निकल आए बाहर। ” पुरुष वर्चस्ववादी दबाव से प्रसूत यह नारी की चीख कोई साधारण सी चीख नहीं है बल्कि एक नारी के अंदर दबी हुई पुरुष के प्रति एक तलवार की धार है। अतः कहा जा सकता है कि अनामिका की कविताएँ दृष्टि संकुचन के विरुद्ध अपनी पूरी सामर्थ्य से खड़ी है।
डॉ.वर्षा कुमारी