‘सूर्यकांत त्रिपाठी निराला’ छायावादी युग के उन चार स्तंभों( जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा) में से एक हैं। इनकी ख्याति छायावादी कवि के रूप में ही है। इन्होंने साहित्यिक जीवन का प्रारंभ ‘जन्मभूमि की वंदना’ नामक कविता से किया ।
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की ‘सरोज स्मृति’ कविता हिंदी में अपने ढंग का एकमात्र शोकगीत है। ‘सरोज स्मृति’ कविता निराला की दिवंगत पुत्री सरोज पर केन्द्रित हैं। निराला ने इसे अपनी एकलौती पुत्री सरोज की मृत्यु के पश्चात लिखा था। बेटी के रंग-रूप में निराला जी को अपनी पत्नी का रंग-रूप दिखाई पड़ता हैं। निराला ने अपनी कविता में करुण भाव के साथ-साथ हास्यमूलक, व्यंग्य, श्रृंगार, आदि प्रसंगों का प्रयोग करते हुए मरणोपरांत अपनी पुत्री सरोज को याद किया है। इनकी इस कविता में एक साथ इतने भावों का आना ही इन्हें हिंदी साहित्य में प्रसिद्धि हासिल कराता है। इस कविता में निराला असहाय पिता के रूप में नजर आते हैं। ऐसे पिता जो बीमारी से लड़ रही अपनी पुत्री को बचाने में असफल रहते हैं। तत्पश्चात 18 वर्ष की उम्र में ही उसकी मौत हो जाती है।
अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
कुछ दिन को, जब तू रही साथ,
अपने गौरव से झुका माथ,
पुत्री भी, पिता-गेह में स्थिर,
छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।
आँसुओं सजल दृष्टि की छलक
पूरी न हुई जो रही कलक
इस कविता में सिर्फ सरोज का जीवन ही हमारे सामने नहीं आता बल्कि निराला का जीवन संघर्ष भी हमारे समक्ष प्रस्तुत हो जाता है। निराला के जीवन संबंधी जैसे, विवाह से लेकर उनकी आर्थिक स्थिति को भी हम महसूस कर सकते हैं। इन पंक्तियों में उनके दुखी जीवन को भली-भांति देखा और महसूस किया जा सकता है-
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
निराला ने अपनी पुत्री सरोज के बाल्यावस्था से लेकर मृत्यु तक की घटनाओं को बड़े ही मार्मिक और प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया है। सरोज स्मृति कविता में निराला को एक संघर्षशील पिता के रूप में पाया गया है। अपनी बीमार पुत्री के लिए वह कुछ नहीं कर सके थे। क्योंकि वह आर्थिक रूप से सक्षम नहीं थे। इसका उन्हें आजीवन बहुत ही खेद था। इसीलिए वह अपनी इन पंक्तियों में कहते हैं कि –
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर ।
डॉ.वर्षा गुप्ता