‘दलित’ शब्द आधुनिक युग की देन है। प्राचीन काल में दलितों को अछूत और शूद्र कहा जाता था। वर्तमान समय में दलित अनिसुचित जाति के अन्तर्गत आते हैं। दलित शब्द का प्रयोग उनके लिए किया जाता है जो समाज में निचले पायदान से ऊपजते हैं। अगर हम ‘दलित साहित्य‘ पर दृष्टि डालें तो इसका इतिहास बहुत पुराना है ।
भारतीय वर्ण व्यवस्था में सदियों से तिरस्कृत, उत्पीड़ित तथा पद दलित रहे समुदाय को आज ‘दलित’ का नाम दिया जाता है। जिसे पहले जमाने में ‘शूद्र’ और ‘अस्पृश्य’ के नाम से जाना जाता था। काशीराम ने इन्हें ‘बहुजन’ की संज्ञा दी तो महात्मा गांधी ने इन्हें ‘हरिजन’ की उपाधि दी और हमारे भारतीय संविधान में इसे अनुसूचित जाति कहा जाता है। 19वीं सदी के उत्तरार्ध से इस समाज में धीरे-धीरे चेतना का संचार हुआ और दलित समाज अपनी अधम स्थिति के परिणाम बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सामने आए और आज दलित साहित्य, दलित विमर्श, दलित संघर्ष, दलित उत्थान, दलित एकता, दलित अस्मिता एवं बहुजन समाज जैसे अनेक शब्द प्रचलित हैं।
दलित शब्द अपने अर्थ को लेकर काफी मतभेद का विषय रहा। व्युत्पत्ति की दृष्टि से दलित शब्द ‘दलन’ क्रिया से निष्पन्न हुआ है। दलित का प्रयोग सताया हुआ, ‘दबाया हुआ’, ‘वश में किया हुआ’ के लिए किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि जिसे अत्याचार द्वारा, उसकी इच्छा के विरुद्ध दबाया या वश में किया गया हो वही दलित है। दलित शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत धातु ‘दल’ से हुई जिसके आधार पर दलित शब्द का निम्न अर्थ निकाल सकते हैं-
1.खंडित, रौंदा या कुचला हुआ।विनिष्ट किया हुआ।
3.मसला हुआ, चीरा हुआ, फूटा हुआ मर्दित। 4.खंडित किया हुआ।
दलित की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए डॉ. एन. सिंह ने लिखा है– ‘दलित का शाब्दिक अर्थ है जिसका दमन किया तथा उत्पीड़न किया है। यह उत्पीड़न चाहे ‘शास्त्र’ द्वारा किया गया हो चाहे ‘शस्त्र’ द्वारा, इसलिए इस शब्द की सीमा में केवल शूद्र ही नहीं आते हैं बल्कि वे सभी आ जाते हैं जिनका किसी भी दशा में मानसिक अथवा आर्थिक शोषण हुआ है।’ लक्ष्मण शास्त्री ने लिखा है- ‘दलित मानवीय प्रगति में सबसे पीछे धकेल दिया गया सामाजिक वर्ग है।’
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समाज के सर्वाधिक, दुर्बल, सर्वहारा, उपेक्षित, तिरस्कृत दलित, शोषित, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं मानवीय अधिकारों से वंचित वर्ग जिसे सामाजिक न्याय ही नहीं मिल सका दलित श्रेणी में आता है- डॉ. अयाज अहमद कुरैशी।
दलित उसे कहते हैं जो आर्थिक रूप से अत्यंत दबा हुआ है। इस समाज व्यवस्था में सबसे नीचे रहने वाला कमजोर वर्ग दलित समझा जाता है- गोविंद शंकर बाघमारे।
लेकिन आज दलित शब्द का प्रयोग जिन संदर्भों में किया जाता है वह सर्वथा नए हैं, लेकिन सामान्यतः परंपरागत हिंदू वर्ण व्यवस्था में शुद्ध व पंचम वर्ण के अंतर्गत आने वाले समुदाय को सवर्णों द्वारा अस्पृश्य माना जाता है ‘दलित’ कहा जाता है। इसमें आदिवासी भी शामिल है। इन जातियों में जिन लोगों ने इस्लाम या ईसाई धर्म अपना लिया वे भी दलित वर्ग में ही शुमार किए जाते हैं।
दलित साहित्य दलितों का साहित्यिक आंदोलन है। दलित साहित्य के प्रयोजन के संदर्भ में यशवंत मनोहर कहते हैं-‘जनतांत्रिक समाजवाद प्रस्थापित करना और उस तारतम्य से कला का आशय निश्चित करना ही, दलित साहित्य का प्रयोजन है।’ तो मराठी लेखक नामदेव लक्ष्मण ढसाल कहते हैं- ‘दलितों का मुक्ति संघर्ष सर्वांगीण क्रांति चाहता है, आंशिक परिवर्तन हमें नहीं चाहिए। हमें संपूर्ण क्रांतिकारी परिवर्तन चाहिए।
दलित एक सामाजिक अवधारणा ही है जिनका दमन हुआ है। वह दलित जिसे मनुष्य दर्जे से नीचे धकेला गया दलित है। इस परिभाषा के अनुसार भारत में 17% अनुसूचित जाति, 8% अनुसूचित जनजाति, 17% धर्मातारित मुस्लिम, 7% धर्मांतरित दलित, ईसाई सिक्ख बौद्ध आदि को किसी-न-किसी आधार पर दलित कहा जाएगा। यानी देश की कुल जनसंख्या का लगभग 50% जनसमुदाय दलित है। आधुनिक परिभाषा के आधार पर यही समाज बहुजन समाज है।
आधुनिक भारत में बौद्ध समुदाय के अभाव की पूर्ति डॉ.अंबेडकर ने की उन्होंने 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में बौद्ध धर्म में धर्मांतरण करके लाखों दलितों को बौद्ध में दीक्षित होने की प्रेरणा दी। इसी प्रेरणा के परिणामस्वरूप आज भारत में बौद्धों की संख्या लगभग 10 लाख है। महात्मा बुद्ध ने समाज में फैली विसंगतियों एवं ब्राह्मणवाद को कुचलने के लिए तीन शिक्षाएं दी थी-1. सामाजिक समानता 2. वर्ण व्यवस्था का उन्मूलन और3. अहिंसा।
इसीलिए डॉ.अंबेडकर धर्म के उदय को भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था के उन्मूलन की दिशा में एक महान प्रयास मानते हैं -यह उतनी ही महान क्रांति थी, जितनी कि फ्रांस की क्रांति, यद्यपि यह धार्मिक क्रांति के रूप में आरंभ हुई, तथापि यह धार्मिक क्रांति से बढ़कर थी। यह सामाजिक और राजनैतिक क्रांति बन गई थी। बीसवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का पुनरुत्थान आज दलित चेतना का प्रतीक बन गया।
डॉ. भीमराव अंबेडकर को दलितों का मसीहा कहा जाता है। अंबेडकर ने दलित उद्धार आंदोलन में एक नई सोच और नई दिशा की नींव रखी है। अंबेडकर का मानना था कि जाति समस्या या अछूत समस्या का निर्मूलन वर्ण व्यवस्था को समाप्त करने से ही हो सकता है। वे गांधी तथा साम्यवाद दोनों से असहमत थे। उनके अनुसार भारतीय व्यवस्था का मूल आधार वर्गभेद नहीं बल्कि वर्ण भेद है।
दलित विमर्श अपने में एक उत्तर-आधुनिक विमर्श ही है। उत्तर आधुनिक विमर्श की यह केंद्रीय धारणा है कि समाज, संस्कृति, कला और साहित्य आदि की व्याख्या करने की जो दृष्टि आधुनिकता तक रही, उसमें कुछ वर्ग हैं जो हाशिए पर अर्थात ‘उपेक्षित’ रहे हैं, जैसे-स्त्री, वेश्या, आदिवासी, दलित, नपुंसक, वृद्ध आदि। उत्तर आधुनिक विमर्श उपेक्षित वर्गों को हाशिए से ‘केंद्र’ में लाने का प्रयास करता है। दलित विमर्श भी इसी प्रयास का एक हिस्सा है।
संविधान में दलितों का स्थान-
26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ। इसके भाग-3 में मौलिक अधिकारों के अंतर्गत अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के अधिकार की भी विधिवत व्यवस्था की गई जो इस प्रकार है- 1.समानता का अधिकार: धारा 14 कानून के समक्ष सभी बराबर हैं। 2.धारा-15 धर्म, जाति, लिंग, जन्म, स्थान, अपंगता के आधार पर किसी भी सार्वजनिक स्थान पर प्रवेश पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। इसी धारा के अंतर्गत राज्य को सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों, अनुसूचित जाति व जनजाति के व्यक्तियों के उत्थान के लिए विशेष कानून बनाने का अधिकार है। 3.धारा-16 सार्वजनिक रोजगार पाने के समान अधिकार। 4. धारा-17अश्पृश्यता उन्मूलन कानून के अनुसार छुआछूत का व्यवहार दंडनीय अपराध है। 5.धारा-23 बँधुआ मज़दूरी पर प्रतिबंध है। 6.धारा-24 चौदह वर्ष से कम आयु के बच्चों को रोजगार में लगाने पर प्रतिबंध है।
संविधान के भाग -14 में राज्य के लिए नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत दलितों तथा गरीबों के पक्ष में योजनाएं बनाने का आदेश है जो इस प्रकार है-
1.धारा- 46 राज्य को समाज के कमजोर वर्गों विशेषकर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के विकास एवं उन्नति के लिए विशेष प्रयास करने का निर्देश है।
- धारा- 330-332 में लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं में सदस्य पदों के लिए आरक्षण का प्रावधान है।
- धारा- 335 अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सरकारी सेवाओं में चयन के लिए आरक्षण का प्रावधान है।
- धारा- 338 अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान है जिसके द्वारा 1990 के संविधान संशोधन में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग के गठन का आदेश दिया गया।
- संविधान के 73वें एवं 74वें संशोधन में कुछ अन्य बातों के अलावा पंचायतों में सरपंच तथा स्थानीय निकायों के हर स्तर पर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के आरक्षण संबंधी विधेयक को संविधान के भाग IX एवं XI(A) में शामिल किया गया है।
‘अनुसूचित जाति’ शब्द प्रथम बार 1935 के भारत सरकार अधिनियम में प्रयोग हुआ। इसके बाद भारतीय संविधान के स्थापना के पश्चात भारत के राष्ट्रपति ने संविधान की धारा 341 एवं धारा 342 के अंतर्गत अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों की सूची की अधिसूचना जारी की।
हमारे समाज में दलितों को नीच, अस्पृश्य करार दिया जाता रहा है और उन्हें हर जगह दबाया जाता है। एक ओर तो सभी लोग नारे लगाते हैं कि देश की उन्नति हो रही है और हमारे देश में ऊंच-नीच का कोई भेदभाव नहीं है। सभी लोग समान हैं न कोई छोटा न कोई बड़ा है। लेकिन हम दूसरी ओर देखते हैं कि जाति और धर्म आज हमारे बीच एक ऐसी दीवार बनकर खड़ी है जिसे कोई गिराना ही नहीं चाहता अगर वो गिरता भी है तो अपनी ही जाति के लोग एक साथ मिलकर उसे उठाते हैं और जातिवाद का नारा लगाने लगते हैं।
दलित साहित्य के आधुनिक समीक्षक की अपेक्षा प्रभावी समीक्षकों की आवश्यकता है। दलित समाज की भाषा और भावना जानने वाला और उससे मन: पूर्वक समरस होने वाला आलोचक दलित साहित्य को बहुत बड़ी प्रेरणा दे सकता है।
डॉ. वर्षा कुमारी